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________________ [ वर्ष ८ रत्नकरण और भाप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है १५७ इसपर मैंने अपने प्रथम खेखमें प्राप्तमीमांसाकारकी ही गत उल्लेखानुसार स्वेदके प्रभाव-नि:स्वेदत्वको भी स्वीकार दूसरी रचना स्वयम्भूस्तोत्रके उल्लेखोंके प्राधारपर यह सिद्ध कर लिया है। इस प्रकार अस्पष्टत: ७ दोषोंके अभावको किया था कि प्राप्तमीमांसाकारको भी प्राप्तमें क्षधादि १८ और भी आप मान लेते हैं । अर्थात् प्राप्तमें ५+७= १२ दोषोंका अभाव इष्ट है। हमारे इस कथनकी मालोचना दोषोंका भाव माननेमें प्रो. मा०को कोई आपत्ति नहीं करते हुए प्रो. सा. ने लिखा था कि 'पंडितजीने जिस जान पढ़ती। इस मेरे विशद विवेचनके किये जानेपर अब प्रकारके उल्लेख प्रस्तुत किये हैं उनको देखते हुये मुझे इस प्रो० सा० मुझसे पूछते हुए कहते हैं कि 'मैं पण्डितजीसे बातकी अब भी श्रावश्यकता प्रतीत होती है कि यहाँ सबसे पूछता हूँ कि उन बारह दोषोंका केवली में प्रभाव मानने में पहले मैं अपने दृष्टिकोणको स्पष्ट करदूं । केवलीमें चार मुझे आपत्ति थी कब ?' मेरे ऊपर उद्धृत लेखाँशसे मुस्पष्ट वातिया कर्मोंका नाश होचुका है, अत एव इन कमोसे है कि मैंने तो उस सम्बन्धमें पण्डितजीके उल्लेखों में अविउत्पन्न दोषोंका केवलीमें अभाव माननेमें कहीं कोई मतभेद वेक और अनावश्यकताको ही सूचना की थी।' नहीं है। स्नकरण्डके छठे श्लोकमें उल्लिखित दोषोंमें इस ममें पुनः खेद सहित कहना पड़ता है कि प्रो. सा. प्रकारके पाँच दोष हैं-भय, स्मय, राग, द्वेष और मोह। कितनी चतुराईसे पाठकोंको भुलावेमें डालना जानते हैं। अत एव इन दोषोंके केवलीमें प्रभावके उल्लेख प्रस्तुत पाठक देखेंगे कि उनके उपयंक उल्लेखोशमें उक्र १२ दोषों करना अनावश्यक है।' का कोई उल्लेख नहीं है, जिनके बारेमें वे 'सस्पष्ट' कहनेका यहाँ यह स्मरण रहे कि विलुप्त अध्यायमें प्रो. सा. निःसंकोच निर्देश करते हैं। यहाँ तो सिर्फ पांच ही दोषोंका नै अष्टसहस्री टीका (प्रा० मी. श्लो० ४ और ६) का स्पष्टत: उल्लेख है। हां, प्रस्तुत लेखमें अब अवश्य उन १२ हवाला देकर राग, द्वेष और मोह (प्रज्ञान) इन तीनको दोंके केवलीमें प्रभाव माननेमें अनापत्ति स्वीकार करली है। प्राप्तमीमांसाकारका अभिप्राय बतलाकर दोषका स्वरूप प्रकट सो कब ? जब मैंने विश्लेषण करके विशदताये उन्हें दिखाया किया था-उनमें भय और स्मय ये दो दोष नहीं कहे थे। और उनके मानने में श्रापनि न होनेको कहा। पहले तो और जब मेरे द्वारा स्वयम्भूस्तोत्रके उन उल्लेख उपस्थित उन्होने विलुप्त अध्यायमें तीन ही दोष बतलाये थे फिर किये गये तो बादमें 'नकरण्ड और प्राप्तमीमीमांसाका पाँच दोष होगये और अब बारह दोष होगये । और शायद एक-कर्तृत्व' लेखमें यह कहते हुए कि 'रनकरण्डके छठे अगले लेखमें पूरे १८ दोष मान लें और उनका केवलीमें श्लोकमें उल्लिखित दोपोंमें इस प्रकारके पाँच दोष-भय, अभाव स्वीकार करलें। ऐसी स्थितिमें पाठक जान सकते हैं स्मय, राग, द्वेष और मोह।' राग, द्वेष और मोहके अलावा कि अविचेक और अनावश्यकता किस ओर है ? मेरे विवेभय और स्मय इन दो दोषोंको और भी मान लिया गया चन" उल्लेखों में है या उनके उत्तरोत्तर संशोधन होने गये और इस लिये मैंने द्वितीय लेस्त्रमें लिखा था कि 'प्रसन्नताकी कथनमें है ? इससे प्रकट है कि जब उनके कथनमें उत्तरोत्तर बात है कि 'राग, द्वेष, मोहके साथ भय और स्मयके संशोधन होता गया तो मेरे उन उल्लेखों में विवेकीजन विवेक अभावको भी केवलीमें प्रो. सा० ने मान लिया है और और सार्थकता ही निश्चय से प्राप्त करेंगे। प्रो० सा. ने स्वयं इस तरह उन्होंने रत्नकरण्डमें उक्र १८ दोषोंमेसे पोच भी पहले अपने 'दृष्टिकोण' को अस्पष्ट स्वीकार किया है दोषोंके अभावको तो स्पष्टत: स्वीकार कर लिया है। और श्रीर पीछे उसे 'स्पष्ट किया है। जैसा कि उनके ऊपरके चिन्ता, खेद, रति. विस्मय और विषाद ये प्रायः मोहकी पर्यायविशेष हैं, यह प्रकट है। अतः मोहके प्रभावमें इन प्राप्तमीमांसामें भी रत्नकरण्डोक दोषका स्वरूप दोषोंका प्रभाव भी प्रो० सा० अस्वीकार नहीं कर सकते हैं। निद्रा दर्शनावरण कर्मके उदयसे होती है, इसलिये केवलीमें ___ माना गया हैदर्शनावरण कर्मका नाश होजानेसे निद्राका अभाव भी प्रो. मैंने स्वयम्भूस्तोत्रके प्रमाणोल्लेखोंसे यह सिद्ध किया मा. को अमान्य नहीं हो सकता। विद्यानन्द के असहस्त्री- था कि प्राप्तमीमाँसाकारको भी नकरण्डोक दोषका स्वरूप
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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