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________________ महाककि हरिचन्दका समय (ले०–६० कैलाशचन्द्रजी जैन, शास्त्री) महाकवि हरिचन्दके दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं एक “इस कायस्थ-कुल-भूषण, दिगम्बर जैन मताधर्मशर्माभ्युदय और दूसरा जीवन्धरचम्पू । कुछ नुयायी, आद्रदेवकं पुत्र, महाकवि हरिचन्दका समय विद्वानोंका मत है कि जीवन्धरचम्पू किसी अज्ञात- ठीक रीतिसे नहीं ज्ञात होता। हरिचन्द नामके दो नामा विद्वानकी कृति है। श्रीयुत प्रेमीजीने लिखा कवि प्रसिद्ध हैं-एक, जिनका उल्लेख हर्षचरितके है-“यद्यपि' जीवन्धरचम्यूमें धर्मशर्माभ्युदयके प्रारम्भमें महाकवि वाणभट्टने किया है । दूसरे, विश्वभावों और शब्दों तकमें बहुत कुछ समानता है, प्रकाशकोपके रचयिता महेश्वरके पूर्वज, चरकसंहिता इससे दोनोंको एक ही कर्ताकी कृति कहा जा मकता के टीकाकार जो राजा साहसाङ्कके प्रसिद्ध वैद्य थे। है, परन्तु साथ ही यह भी तो कह सकते हैं कि किसी ये हरिचन्द इन दोनोंमेंसे ही कोई एक हैं या तीसरे अन्यने ही धर्मशर्माभ्युदयसे वे भावादि ले लिये हों।" हैं, यह सन्देह है । किन्तु यह भी अपने प्रौढ़ कवित्व प्रेमीजीकी सम्भावना ठीक है, किन्तु ग्रन्थके के कारण माघ आदि प्राचीन कवियोंकी कक्षामें ही अन्तमें ग्रन्थकारका नाम होते हुए भी और धर्म- बैठते हैं, इसलिये अर्वाचीन तो नहीं हैं। कर्परमञ्जरीशर्माभ्युदयके भावों और शब्दों तकसे समानता में प्रथम यवनिकाके अनन्तर एक जगह विदूपकके हांत हए किस आधारपर जीवन्धरचम्पको धर्मशर्मा द्वारा महाकवि राजशेग्बर भी हरिचन्द कविका भ्युदय के रचयिता महाकवि हरिचन्दजीकी कृति न स्मरण करता है।" मानकर किसी अज्ञातनामा कविकी कृति माना जाता इसके आधारपर प्रेमीजीने लिखा है कि यदि है, यह हम नहीं जान सके। अभी तक तो हमारा ये हरिचन्द धर्मशर्माभ्युदयके ही कर्ता हों तो इन्हें यही मत है कि दोनों महाकवि हरिचन्दकी रचनाएँ राजशेखरसे पहले का (वि सं. ९६से पहलेका) मानना हैं और सम्भवतः दोनोंका रचयिता एक ही है। फिर चाहिये । तथा पाटण (गुजरात) के सजवी पाडाक भी इसमें सन्देह नहीं कि इस विषयमें अधिक पुस्तक भण्डारमें धर्मशर्माभ्युदयकी जो हस्तलिखित विचारकी आवश्यकता है और इलिये एक स्वतत्र प्रति हे वह वि० १२८७की लिखी हुई है और इलिये लेखके द्वारा ही इसपर ऊहापोह करना उचित है। उमस यह निश्चय होजाता है कि महाकवि हरिचन्द यहाँ तो हम धर्मशर्माभ्युदयके रचयिता महाकवि उक्त संवत्से बादके तो किमा तरह हो ही नहीं हरिचन्दक समयके सम्बन्धमें कुछ नई सामग्री सकते, पूर्वक ही हैं। कितन पूर्वक है, यह दूसरे उपस्थित करना चाहते हैं इसी उद्देश्यसे यह लेख प्रमारणों की अपेक्षा रखता है। लिखा जाता है। मैं यहाँ उन्हीं दृमरं प्रमाणोंको रखता हूँ। ____धर्मशर्माभ्युदयके तीसरे संस्करणमें प्रथम पृष्ठकी में इधर कुछ समयसे श्रावकाचारोंका तुलनात्मक टिप्पणी में उसके सम्पादक महामहोपाध्याय पण्डित अध्ययन करने में लगा था। उसीकी खोज-चीन करते दुर्गाप्रसादने संस्कृतमें उसके रचयिताके सम्बन्धमें मैंन महाकवि वीरनन्दिके चन्द्रप्रभचरित और कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं। उनका भाव यह है: महाकवि हरिचन्दके धर्मशर्माभ्युदयको भी खाजा । चन्द्रप्रभचरितमें १८ सग हैं और धमशर्माभ्युदयमें १ जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४७२ । २१ । दोनों ग्रन्थोंक अन्तिम सर्गों के अपने अपने
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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