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________________ किरण १२ ] ममन्तभद्र-भारतीक कुछ नमूने वादियों के द्वारा जो तात्त्विक विशेष मान गये हैं उन मबस रहित है-तथा उस अविद्यात्मिका एवं सकलतात्त्विक-विशेप-शून्या संवृतिके भी जो बन्ध और मोक्ष विशंप हैं व हत्वात्मक हैं--सांवृतम्प हंतु स्वभावके द्वारा विधीयमान हैं अर्थात् आत्मीयाभिनिवेशके द्वारा बन्धका और नैगम्य-भावनाके अभ्यास-द्वारा मोक्षका विधान है, दोनोमसे कोई भी तात्त्विक नहीं है । और इस लिये दोनों विशेष विरुद्ध नहीं पड़ते ।' इस प्रकार (हे वीर जिन !) यह उनका वाक्य है-उन सर्वथा शून्यवादि-बौद्धांका कथन है-जिनके श्राप (अनेकान्तवादी) नाथ नहीं है । (फलतः) जिनके आप नाथ है उन अनेकान्तवादियोंका वाक्य ऐसा नहीं है किन्तु इस प्रकार है कि-स्वम्पादि चतुण्यकी अपक्षाम मतरूप पदाथ ही परर.पादि चतुष्टयकी अपेक्षासे अभाव (शून्य) रूप है । अभावमात्रके म्बम्पसे ही अमन होनेपर उममें परमार्थिकत्व नहीं बनता, तब परमार्थवृत्तिम अभावमात्र कहना ही अमङ्गन है।' व्यतीन-सामान्य-विशेष-भावाद्विश्वाऽभिलापाऽर्थ-विकल्प-शुन्यम् । ग्व-पुप्पवम्यादमदेव तन्वं प्रबुद्ध तत्त्वाझ्यतः परंपाम् ॥२६॥ हे प्रबुद्ध-तत्त वीर जिन ! आप अनेकान्नवादीम भिन्न दृमगंका-अन्य एकान्तवादियोंका-जो सर्वथा सामान्यभावस गहन, मवथा विशेषभावसे रहित तथा (परम्पर मापेक्षम्प) सामान्य-विशेषभाव दोनोंमे रहिन जो तत्व है वह (प्रकटम्पमें शून्य तत्त्व न होते हुए भी) संपूण अभिलापी तथा अर्थविकल्पांम शुन्य होने के कारण आकाश-कुसुमकं समान अवस्तु ही है। भावार्थ-सामान्य और विशेषका परम्पर अविनाभाव सम्बन्ध है-सामान्यकं बिना विशेषका और विशेषकं बिना मामान्यका अस्तित्व बन नहीं सकता। और इस लिय जो भदवादी बौद्ध सामान्यको मानकर सवतः व्यावृतम्प विशेष पदार्थीको ही मानते हैं उनके व विशप पदार्थ भी नहीं बन सकते-मामान्यस विशेपके मवथा भिन्न न होनेके कारण मामान्य अभावम विशेष पदार्थो के भी अभावका प्रसङ्ग आना है और तत्त्व मवथा निम्पाख्य ठहरता है। और जा अभंदवादी मांख्य मामान्यको ही एक प्रधान मानते हैं और कहते हैं कि महन-अहहादि विशेष चुकि मामान्यके बिना नहीं होते इस लिये वे अपना कोई अलग (पृथक ) व्यक्तित्व ( अस्तित्व ) नहीं रखत-अव्यक्त सामान्यक ही व्यक्तरूप है-उनके मकल विशंपांका अभाव होनेपर विशेषांक साथ अविनाभावी सामान्यके भी अभावका प्रसङ्ग आता है और व्यक्ताव्यक्तात्मक भाग्यकं अभाव होनपर भोक्ता आत्माका भी अमभव ठहरता है। और इस तरह उन माग्यांके, न चाहते हए भी. मवशन्यत्वकी सिद्धि टित होनी है। व्यक्त और अव्यक्त में कञ्चितभेद माननेपर स्याद्वाद-न्यायके अनुसार गणका प्रमङ्ग पाना है और तब वह वाक्य (वचन) उनका नहीं रहता जिनके आप वीजिनेन्द्र नायक नहीं है । इमी तरह परस्पर निरपेक्षम्पस सामान्य-विशेष भावको मानने वाले जो योग है-नैयायिक तथा वैशपिक हैं-वं कश्चन रूपसे (परस्पर मापेक्ष) मामान्य विशेषको न माननेके कारण व्यतीत-मःमान्य-विशेष-भाववादी प्रसिद्ध ही हैं और वीरशासनस बाह्य है, उनका भी तत्व वास्तवमै विश्वामिलाप और अर्थ-विकल्पसे शून्य होनक कारगण गगन-कुमुमकी तरह उसी प्रकार अवस्तु ठहरता है जिस प्रकार कि व्यतीत-सामान्य-भारवादियांका, व्यतीत-विशेष-भाववादियोंका अथवा मवथा शून्यवादियांका नच्च अवस्नु ठहरता है। अतत्स्वभावेऽप्यनयोरुपायाद्गतिभवेत्ती वचनीय-गम्यौ । सम्बन्धिनी चेन्न विरोधि-दृष्ट वाच्यं यथार्थ न च दृपणं तत ॥२७॥ “यदि कोई कहे कि शून्यम्वभावकं अभावरूप मम्वभाव तत्वके माननवर भी इन (बन्ध और मोक्ष) दानांकी उपायम गति होती है.---उपाय-द्वारा बन्ध श्रीर मान दानां जान जान है.---, दानां वचनीय है
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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