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________________ प्रतिष्ठासारका रचनास्थल [ लेखक-क० भुजबली शास्त्री, विद्याभपण] यहाँपर प्रतिष्ठासारसे जयसेन अथवा वसुबिन्दु' उस जमानेमें उत्तर कन्नड तौलव देशमें ही गभिंत के प्रतिष्ठासारका प्रयोजन है, जिसकी रचना, था और वहाँपर दीर्घकाल तक जैनोंका ही शासन रचयिताके कथनानुसार दक्षिण दिशामें स्थित कुंकुण रहा । बनवासि, भटकल एवं गेरूसोप्पे यहाँके (कोंकण) देशमें, सह्याद्रिके निकट रत्नगिरिके ऊपर प्रधान विश्वविख्यात प्राचीन जैन राजधानियाँ रहीं। भगवान् चन्द्रप्रभके उक्त चैत्यालयमें, जिसे लालाट्ट बल्कि जैनोंका आदिम पवित्र ग्रन्थ 'षटखण्डागम राजाने अर्जित कराया था, प्रतिष्ठा-कर्य-निमित्त प्रातःस्मरणीय आचार्य भूतबलिके द्वारा बनवासिमें गुरुदेवकी आज्ञासे प्रतिज्ञापूर्त्यर्थ सिर्फ दो ही दिनमें सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया था जिस पवित्र स्थानकी गई थी। को वर्तमान जैन समाज सर्वथा भूल गया है। यह __ अब हमें देखना है कि दक्षिण दिशामें स्थित प्रान्त केवल राज्यशासनकी दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं उपर्यक्त कुंकण देश एवं सह्याद्रिके निकटवर्ती श्रीरत्न- है, किन्तु गुरुपीठकी दृष्टिस भी। सोदे (सधापर) गिरि कौनसा है । मेरे ख्यालसे बम्बई प्रान्तर्गत बिलांग (श्वेतपुर), हाडहल्लि (सङ्गीतपुर) आदि वर्तमान रगिरि जिलेमें अवस्थित, रत्नगिरि ही स्थानाम उस जमानेम बड़े-बड़े सुदृढ जैनमठ भी पूर्वोक्त रत्नगिरि होना चाहिये। यह सह्याद्रिके समीप विद्यमान थे। है भी। वस्तुतः प्राचीनकालमें उक्त रत्नगिरि कुंकुण यहाँपर एक उल्लेखनीय बात यह है कि इस या कोंकण देशमें ही शामिल था। यद्यपि इस समय प्रान्तमें महारानी चेन्नभैरवदेवी, और भैरवदेवी जैसी वहाँपर भगवान श्रीचन्द्रप्रभका कोई चैत्यालय नज़र वीरांगनाओंने भी शासनसूत्रको अपने ही हाथमें नहीं आता। बहुत कुछ सम्भव है कि अन्यान्य स्थानों लेकर दीयकाल तक सुचारुरूपसे राज्य किया था। के चैत्यालयोंकी तरह यह चैत्यालय भी जैनांके एक जनश्रुति है कि विजयनगरके राजाओं (ई० सन प्रमादसे अन्य धर्मावलम्बियोंके द्वारा ले लिया होगा। १३३३-१५६५) ने ही कणाटकम गेरुमोप्पेके जैन पूर्वमें वर्तमान बम्बई प्रांतान्तर्गन बीजापुर, बेलगाम, राजवंशको उन्नत बनाया था। खैर, एक तो यह धारवाड़ तथा उत्तर कन्नड आदि जिलोंमें जैनोंका विषयान्तर है, दूसरी बात यह है कि इस छोटेसे बहुत जोर था। लेखमें इस प्रान्तकं महत्वको सुपाठकोंके समक्ष उपस्थित करना सहज नहीं है। इसके लिये एक १ वसुबिंदुरिति प्राहुम्तदादि गुरवो यतः । स्वतन्त्र पुस्तक ही अपेक्षित है, जिसमें भटकल, जयसेना पराख्यां मां तन्नमोस्तु हितपिणाम् ।।६२४।। गेरुसोप्पे, श्वेतपुर, सुधापुर आदि कुल स्थानोंका २ श्रीदक्षिणे कुङ्कण (कोकण) नाम्निदेशे, महत्वशाली अखण्ड इतिहास अन्तभुक्त हो। सत्वादिणा संगतसीम्नि पते । अब यहाँपर एक प्रश्न उठता है कि ग्नागरिके श्रीरत्नभद्रोपरि दीर्घचैत्यं ऊपर भगवान चन्द्रप्रभ उपर्युक्त उन्नत चैत्यालयको बनवाने वाला वा जीर्णोद्धार कराने वाला लाला लालाहराज्ञा विधिनोर्जितं मत् ॥६२४|| तत्कायमुद्दिश्य गुरोरनुज्ञामादाय कोलापरवासिहर्षात । राजा' तथा उसका वंश कौनसा है। पर्याप्त साधन दिनद्वये संलिखितः प्रतिज्ञापृर्थमवं तसंविधति(तं )||६२५ १'लालाराजा विधिनार्जितं मत'
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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