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________________ ३६४ अनेकान्त [ वर्ष ८ की अनुपलब्धिमें इस समय राजाका पता लगाना तो यहाँपर और एक बातका उल्लेख कर देना अशक्य है । हाँ, स्थूलत: वंशका पता लगाया आवश्यक है । वह यह है कि प्रशस्तिगत ९२५में जासकता है । यद्यपि 'लाला' शब्द । अगर यह शुद्ध पद्यान्तर्गत द्वितीय चरणके अन्त में 'कोलापुरवासिहो) के श्रवणमात्रमे विज्ञ पाठकोंका ध्यान सहसा हर्षात' यह एक शब्द है । यद्यपि इस समय इसका राष्ट्रकूट, रट्ट एवं लाट राजवंशकी ओर जाना मर्वथा सम्बन्ध ठीक-ठीक नहीं बैठता है। फिर भी हमें स्वाभाविक है। पर मेरा अपना मत है कि गट्रकूट इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उपर्युक्त चैत्यालय वशका अपक्षा 'लाला वंशका सम्बन्ध प्रतिष्ठा या 'प्रतिष्ठासार' के रचयिता जयमेनसे इसका लाटवंशसे जोड़ना अधिक सुसङ्गत होगा। क्योंकि अवश्य मम्ब ध है। इसका निर्णय तो 'प्रतिष्ठासार' इतिहाससे यह पुष्टि होती है कि पूर्वम लाटमें कोंकण की शुद्ध प्रतिकी प्राप्तिसे ही होसकता है। देश भी शामिल था। प्रन्थ रयिताने ग्रन्थ-प्रशम्निमें अपनको आचार्य अब रही साहित्यिक दृष्टिसे ग्रंथके महत्वकी कुंदकुंदका अपशिष्य लिखा है । परन्तु जयसेनको बात । श्रीयुत् पं० परमानन्द जी शास्त्री, सरसावाके समयसारादि ग्रन्थोंक र यता आचार्यपुङ्गव कुंदकुंद शब्दोंमें ही "इस प्रतिष्ठापाठको देखनेसे ग्रन्थ कोई महत्वशाली मालूम नहीं होता, और न उसमें प्रतिष्ठाका समकालीन मानना युक्तिसङ्गत नहीं है । कुन्दकुन्द जयसेनके साक्षात् गुरू नहीं हो सकते । हाँ, परम्परा सम्बन्धी कोई खास वैशिष्ट्य ही नज़र आता है। भाषा भी घटिया दर्जेकी है जिससे ग्रन्थकी महत्ता गुरु स्वीकार करनेमें कोई आपत्ति नहीं है । परम्परा एवं गौरवका चित्तपर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। शिष्य होनेपर भी इस प्रकार लिखना कोई अनोखी इस कारण यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह प्रवचनबात नहीं है। इस तरह के उदाहरण जैन-साहित्यमें सारादि प्राभृत ग्रन्थोंक कर्ताक शिष्य नहीं हैं, अनेक उपलब्ध होते हैं। किन्हीं दूसरे ही कुन्दकुन्द नामके विद्वानके शिष्य १ 'कन्नड नाडिन चरित' (प्रथम भाग) पृष्ठ ६५ । होसकते हैं।" २ कुन्दकुन्दापशिष्येण जयसेनेन निर्मितः । पाठोऽयं सुधियां सम्यक कर्तव्यायास्तु योगतः ॥२३॥ १ अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३,४,५ । पह। विलम्बका कारणा गत किरणमं दी हुई आवश्यक सूचनाके अनुसार अनकान्तका यह वर्ष इस प्राषाढ़में पूरा होजाना चाहिय था । परन्तु श्रीवास्तव प्रसके भारी गैरजिम्मेदाराना रवैयक कारण कितने ही अर्से तक ता मैटर उसके पास बिना छप ही पड़ा रहा और बादको उसने छापनेसे साफ इनकार कर दिया । तब दूसरे प्रेसके लिये देहली, लखनऊ आदि कोशिश की गई और इसमें कितना ही समय निकल गया । आखिर सहारनपुर के ही रॉयल प्रिंटिङ्ग प्रससं, जो कि सबसे अच्छा स्थानीय प्रेम समझा जाता है, मामला स्थिर हुआ और उसे १० मईको मैटर देदिया गया । १८ जून तक इस संयुक्त किरणकं प्रकाशित होजानेका निश्चय था, परन्तु दुर्भाग्यसे कुछ समय बाद ही प्रेमकी मशीन खराब होगई और उसकी दुरुस्तीमें काफी समय लग गया। इसीसे यह किरण इतने विलम्बके माथ जुलाईके शुरूमें प्रकाशित होरही है, इसका हमें भारी खेद है ! परन्तु मजबूरीको क्या किया जाय ! आशा है प्रेसकी योग्य व्यवस्थासे आगे विलम्बको अवसर नहीं मिलेगा। इस वर्षकी तीन किरणें अवशिष्ट हैं, उनके प्रकाशित होते ही नये वर्षकी योजना पाठकोंके सामने रक्खी जायगी। व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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