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________________ किरगा १] चित्तौड़क जैनकीर्तिम्भका निर्माण या एवं निर्माता १४१ उyा कर फिर नवीन प्राप्त प्रमाणीको उपस्थित का "कीनिस्तम्भको सं० १५२ में बघेरवाल जातिक जायेगा। जीजा या जीजकने बनवाया था--इसका लेख पर्नल टोट १ माननीय गौरीशंकरजी हीराचंद ओझा अपने का मिला था। (Arcb. Pa Report of उदयपुर राज्यके इतिहास लिखते हैं कि-- Western India pr. 1000 में नं० २२०५ म जैन कीर्तिम्तंभ पाता है। जिसको दिगम्बर संप्रदाय २३०६ में चित्तौड़ के शिलालेख हैं। उनमें एकमें जी केवघरवाल महाजन मा. नायक पुत्र जीजाने वि.स. वषैरवालक बनवाने का उल्लेख है। की चौदहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध में बनवाया था। यह ४ श्रीयन मोहनलाल दबाचन्द देशाई अपने . की िस्तंभ आदिनाथका मारक है। इसके चगें भागोंपर पाहियक मंक्षिप्त इतिहापक पृ. ४५५ में लिप्तते-- मादिनाथका एक एक विशाल दिगम्बर ( नन्न । जैनमूर्ति "जेनिम्तंभ उपर जणाव्या से कम्तिम खड़ा है और बाकीक मागपर अनेक छटी जैन मुतिय खुदी प्राग्वंश (पारवाड) संघवी कुमारपाती प्राणायाद नी दक्षिणे हुई हैं। इस कस्तंभके ऊपरकी छत्रा बिजली गिरने से बंधाव्यो हनी" । टूट गई और इस स्तंभको मा हानि पहची थी परन्तु प्रापने श्रीमाजीका मत उद्धत करते हुए वह मप्रमागा वर्तमान महागगणा (फतहसिंह जी) पा० ने अनुमान ८० नहीं लिया है। हजार रुपये लगा कर ठाक बैमी ही छत्री पंछे वनवादी जैनमत्यप्रकाश वर्ष ७ अं. ५ - २-३ के पृ० १७. है और स्तंभकी भी मम्मा हो गई । में मुनि ज्ञानविजयजीन अपने "जैनतीथी" नियन्ध लिम्बा है कि२ वा. शीतलप्रपाद जीने म. राज के जैनस्मारक नित्तोड ना किल्लायां बे ऊंचा कौनिस्तंभी छ जो (पृ० १३३मे १४१) में लिखा है कि इसे बबेरनाज जीजाने पैकीनो एक भ. महावीरस्वाम'ना का मां जैनमं० ११..के लगभग बनाया था। पर चारित्रग्रनर्माण की चित्रकूटीय महावीरमंदिरकी प्रशस्तिसे राजा कुमारपाल ने कोतिस्तंभ छ जे ममये श्वेताम्बर अने दिगम्बर ना प्रतिमा भदो पड्या हता ने समयनी एटले वि. म. ८६५ इसे बनाया यह भी प्रा० पर्वे सन १९०५-६ पृ. ४६ । पहेला नीए जैन श्वेताम्बर कार्निम्नमछे । x उलट राजा में लिखा है। जैनधर्मप्रेमी हतो x नेना समय मां भ. महावीर स्वामी नं ३ बाबू कानताप्रपादजीसे पूछने पर धापने लिखा मंदिर श्रने कार्तिस्तंभ बनो । मा कानिम्नभनी १ जिसके ऊपर की त्री बनाने व मरम्मत करने में ८० हजार शिल्पस्थापत्य अनेतिमाविधान ते समय ने अनुरूप छ । रुपये व्यय होगये उसके निर्माण में कितना अधिक अर्थ पर मुनिजीका उपर्युक्त लेखन यह नहीं है उन्होंने व्यय हागा पाठक स्वयं अनुमान लगा सकते हैं। वि.सं. ८६५ में पूर्व के होने की कमाना हमलिये की है एक एक स्मारक के पाछ गाग्वा करोडो रूपये लगाने वाले कि उममें उत्कीर्ण मृतिय दिगम्बर लग्न है। उन धनकुबेगके प्रति किमको अादर न होगा। उपर्यन अवतरगाॉम पर है कि "विद्वानों के मत श्रीयुत् जगदीशमिजा गहलोतक गजपमानना हान. कार्निस्तंभ के निर्मागा काल के सम्बन्ध में एक दूसरे पधा हामम भी यही लिखा है। शानल मादतीने मन भिन्न हैं कोई उ से पूर्व वाई १५२ कोई .. कोई भारत व राजपूतानेके जैनस्मारकको १० १५६ २२१. वीं का उत्तगई और कोड १५ व मानते हैं एवं हजार व्यय करने व कारके तोरगा नये बनाने का उल्लेख ३ मुझे उक्त रिपोर्ट नहीं प्रामदामकी पर यदि उसमें कानिकिया है। अर्थ व्ययका रिमाग अंभाजी सूचित दी स्तंभका लेखनी में बाल कामनाप्रमाद जासे प्रकाशित महा प्रतीत होता है। करने का अनुरोध है मेर ख्यालम अपने संवत बन. २ गजा कुमार यान गलत समझा गया है प्रशस्लिमें पाबाः लाया है वह लेग्वमें नहीं होगा फिर भी हमका न्याय तो संघरति कुमार पान लिया है। मुललेग्वक मिलने पर ही हो सकता है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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