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आचार्य अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय-टीका
( लेखक--न्यायाचार्य पं० दरवारोलाल जेन, कोठिया )
हत समयसे मेरी अभिलाषा थी कि और उनके वचनोदारचन्द्रिका-प्रमेयकमखमातंयटकी जिन अनन्तवीर्य और उनके वचनों विद्वत्परम्परामें अच्छी प्रतिष्ठा और ख्याति होरही थी, तब की प्राचार्य प्रभाचन्द्र और वादि- प्रमेयरस्नमाला लिखी गई । १२ वीं शताब्दी विद्वान राजसरिने मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की हेमचन्द्रने प्रमाणमीमांसामें अनेक जगह प्रमेयरत्नमालाका उनके सम्बन्ध में कुछ ज्ञान प्राप्त शब्दशः और पर्थश: अनुसरण किया है। अत: प्रमेयरत्नकरूँ। सौभाग्यसे वीरसेवामन्दिरमें मालाकार मनन्तवीर्य हेमचन्द्रसे पहले और प्रभाचन्द्र के
अनन्तवीर्यको सिद्धिविनिश्चय-टीका बाद अथवा उनके प्रायः समकालीन हुए हैं। अर्थात् ये मौजूद है और इसलिये उसके मरमरी तौरसे पन्ने पलटने अनन्तवीर्य ११वीं शताब्दीके विद्वान हैं। का सुचवमर मिखा-इस महाग्रंथको अच्छी तरह समझने
दूसरे अनन्तवीर्य प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयटीकाकार मनके लिये तो काफी समय अपेक्षित है । यह टीका प्रमी स्तवीर्य हैं, जो प्रकलङ्क प्रौढ और सम्भवत: पाच प्रमुद्रित है। इसके सामान्य अध्ययनसे जो मुझे ज्ञातव्य ।
व्याख्याकार एवं उनके गृढ पदोंके मोद्घाटक हैं और जान पड़ा। उसे 'अनेकान्त' के पाठकोंके लिये भी यहाँ
प्रमाचन्द्र तथा वादिराजद्वारा बड़े सम्मान एवं पादरके
साथ अपने 'पथप्रदर्शक' रूपमें स्मरण किये गये है। अनन्तवीर्य नामके दो विद्वान और उनका समय- प्रभाचन्द्र लिखते हैं :--
उपलब्ध जैन साहित्यमें अनन्तवीर्य नामके दो विद्वान् । त्रैलोक्योदरवर्तिवस्तुविषयज्ञानप्रभावोदयो प्राचार्यों का अब तक पता चला है । एक अनन्तवीर्य तो दुष्प्राप्योऽप्यकलङ्कदेवसरणिः प्राप्तोऽत्र पुण्योदयात् । वे हैं जिन्होंने माणिक्यनन्दिके 'परीक्षा-मुख' न्यायसूत्रपर सभ्यस्तश्च विवेचितश्च शतशः सोऽनन्तवीर्योक्तितः 'परीक्ष मुखपञ्जिका' नामक वृत्ति लिखी है जिसे 'परीक्षा- भूयान्मे नयनीतिदत्तमनसस्तबोधसिद्धिप्रदः।। मुस्खानघुवृत्ति' और 'प्रमेयरत्नमाला' भी कहा जाता ।
-न्यायकुमु० द्वि० भा० पृ० ६०५, परि०५ । ये अनन्तवीर्य प्रमेयकमबमासंण्डकार भाचार्य प्रभाचन्द्र के
अर्थात्-'प्रकलङ्ककी संक्षिप्त एवं गहन और दुर्गम उत्तरकालीन हैं। इन्होंने अपनी प्रमेयरत्नमानामें प्रमाचन्द्र और उनके प्रमेयकमलमार्तण्डका निम्न प्रकार उल्लेख किया पद्धतिको अनन्तवीयके व्याख्यानोंपरसे सैंकों बार
अभ्यास करके जान पाया हूं।' इससे यह प्रकट किये प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति।
भनन्तवीर्य प्रभाचन्द्र के पहले हो गये हैं और जिन्हें वे मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः॥३॥ .
अकलकी दुर्गम कथन-शैलीका अच्छा मर्मोद्घाटक मानते इस उल्लेखपरसे यह स्पष्ट है कि प्रभेन्दु-प्रभाचन्द्र थे। मा. प्रमाचन्द्र ईमाकी १०-११वीं शताब्दी लिये १ वैजेयप्रियपुत्रत्त्य होरपस्योपरोधतः ।
से १०६५ ई.) के विद्वान् माने जाते हैं। ...... शान्तिघेणार्थमारब्धा परीक्षामुखपश्चिका ।।
वीर्य इससे पूर्ववर्ती हैं। प्राचार्य वादिराज अपने न्याय'हति प्रमेयरत्नमालापरनामधेया परीक्षामुखलघवृत्तिः
विनिश्चय-विवरण प्रारम्भ होकहते हैं:समाप्ता।'
१ देखो, न्यायकुमु.द्वि. भा० प्र० पृ०५८ ।