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________________ किरण १.] माहित्य-परिचय और समालोचन ७ महाबन्ध-मल रचयिता, भगवान भतबलि जो सब ३४८ पृष्ठ प्रमाण है। यह प्रकाशन जहाँ प्राचार्य । सम्पादक पण्डित सुमेरुचन्द्र दिवाकर ऊपरी मब बातोंसे सुन्दर है वहाँ भीतरी कुछ बातों शाली, न्यायतीथ, बी० ए०, एल-एल० बी० । से टिपूर्ण भी है। अनुवाद की भाषा वैसी नहीं प्रकाशक, उक्त भारतीय ज्ञानपीठ । मल्य. १२१ । जैसी धवला और जयधवलाक प्रकाशनोंकी है । पृ० सख्या, ५०० से कुछ ऊपर । शब्दोंकी लिष्टतासे अनुवाद सहज गम्य नहीं रहा । यह वही ग्रन्थराज है जिसे महाधवल सिद्धान्त इसके मिवाय जहाँ विशेषार्थोकी जरूरत थी वहाँ भी कहा जाता है । इसीको षटखण्डागमका छठा विशेषाथ नहीं है और जहाँ उनकी खास जरूरत ग्वण्ड भी माना जाता है। उसपर वीरसन स्वामीकी नहीं थी वहाँ वे है। ऐसा मालूम पड़ता है कि टीका नहीं है । प्रस्तुत पुस्तक समग्र महाबन्धका. दिवाकरजीन इस सिद्धान्त ग्रन्थमें भी औपदेशिक जिममें अनक अधिकार हैं. पहला प्रतिबन्धाधिकार ढङ्ग अपनाया है। कितनी ही जगह अनुवादमें है। यह प्राकृत भापामं निबद्ध मलागम ग्रन्थ है। मद्धान्तिक वाटया भा रह गई है, 7 सैद्धान्तिक त्राटयाँ भी रह गई हैं, जिन्हें किसी इम पहली पुस्तकम कर्मबन्धक प्रकृतिबन्धका सूक्ष्म स्वतन्त्र लेखम ही प्रकट करना उचित है। बा० और विस्तृत निरूपण किया गया है । मर्व प्रथम नमीचन्दजी महारनपुरन ऐमी कुछ त्रुटियोंको जैन कवरक आद्य पृष्टपर भगवान बालिका आकर्षक सन्देशमं प्रकट किया है, जिन्हें दिवाकरजीन अपने भव्य चित्र। उसके बाद भीतर तीसरं पुपर स्पष्टीकरण द्वारा म्बीकार कर लिया है-उनका संट माह शान्तिप्रमादजीकी मानेवरी ग्वा मतिदवी उन्हान विरोध नहीं किया। मालूम होता है कि का, जिनकी स्मृतिम स्थापित ज्ञानपीट मनि देवी जैन नि ग्रन्थमालाकं याग्य सम्पादकों और अनुभवी ग्रन्थमालाका यह प्राकृत सम्बन्धी पहला ग्रन्थ है, विशिष्ट विद्वानों द्वारा यह अहट रहा है। मैद्धान्तिक चित्र है। तदनन्तर पाँचव पत्रपर बायीं और ग्रन्थाका प्रकाशन व मम्पादन एवं अनुवाद पूरी श्राचाय शान्निसागरजी महाराजका वीतगगता एवं मावधानीम होना चाहिए, क्योंकि म महान ग्रन्थों ध्यानमुद्रामय मनोज्ञ चित्र है, जिन्हें सम्पादकने उक्त का द्वारा प्रकाशन होना अशक्य है। अमावधानीग्रन्थ मगपंगा किया। सातवं पत्रकी बोया आर सजनताम बड़ी गलतफहमियाँ फेल जाती है। मटांबद्री तथा श्रवणबजगोलकं वनमान भट्रारको यहां हम यह भी कह देना चाहते है कि दिवा और श्रीमान नागराज श्रेष्ठी मविद्रो, श्रीमान स्व. करजीन उन दा अपने सहयोगियां--पं० परमानन्दग्धुचन्द्रजी बल्लला मङ्गलर, श्री० मंजय्य हंगडे धर्म- जी साहित्याचाय और ५८ कुन्दनलालजी-की। म्थल नथा चन्द्रनाथ वर्माद मुडविद्रीक त्रिलोकः . निमम उपेक्षा की है, जिन्होंने उन्हें अपना पसीना चटामगि चैत्यालयकं चित्र हैं। इन लागांकी कृपा वहाकर महयोग दिया था और जिम महयोगकी और प्रयत्नम ही यह ग्रन्थ दिवाकरजीको प्राप्त हो सका म्वीकृति दिवाकरजीन गुभ छिन्दवाड़ाम सिवनी बुला इसके बाद श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलय, मन्त्री कर मुझपर प्रकट की थी और मुझम अपने कायम भारतीय ज्ञानपीठका 'प्रकाशकीय', प्रोहीगलालजी. गय मांगी थी। प्रस्तुत प्रकाशनम उन दोनों विद्वानांके । सम्पादक प्राकृत ग्रन्थमाला विभागका प्रास्ताविक' नाम न देखकर मुझे दुख और आश्चर्य दोनों हए। (हिन्दी व अग्रजी) और दिवाकर जीके IPresence, हमें दिवाकर जाम एसी आशा नहीं थी । अस्तु। । प्राककथन एव प्रस्तावना वक्तव्य है। दिवाकरजीन पुस्तककी सफाई आदि अच्छी है। स्वाध्याय अपनी विस्तृत प्रस्तावनामें ग्रन्थ, ग्रन्थकार और प्रेमियोंको इसे मंगाकर इसके म्वाध्यायसे अपनी तत्सम्बन्धित विषयांपर प्रकाश डाला है । तत्पश्चात तत्त्वज्ञानवृद्धि अवश्य करना चाहिए। मृलग्रन्थ और उसके नीचे उसका हिन्दी अनुवाद है -दरबारीलाल जैन कोठिया, न्यायाचार्य
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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