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________________ किरण ३1 चित्तौड़ जैन कानिस्तभका निमाणवाल एवं निमाता त्रिलोक श्री जिनमहाधिबीद्धा अष्टोनरशन श्रीनिमापाजितविनानुसारेणा महायात्रा प्रनिडातीर्थक्षेत्र....... प्रतिष्ठा कारक अष्ट दशस्थाने अष्टादशकोटिश्रनभंडारसंस्थापक म्युफ से ग्व अधूपसानान होता है पर इससे यह सवानक्षबंदी मोक्षगक मंट द पाट देशे चित्रकूटनगरे नोपरा है कि कार्तिस्तंभक निर्माता वधेरवाल श्रीचंद्रप्रभ जिनेन्द्र चैयालयस्याग्रं नि ..भुपाजितवित्तबलेन जीजा उनके पुत्र पुनहि थे उन्होंने १०८ शिखरवद्ध श्रीक निम्तम प्रारोपमाह जिना सुमार पूनिःस्म मंदिगेंका उद्धार गया, अनेक जिनविय बनवाये, १०८ समहदेउ नस्य भार्गवू तुकायाः पुत्र नावार ने प्रतिष्ठाय करवाई. १८ स्थानों में 15 टि श्रनभंडारकी प्रथम पुत्र माह लम्बागा भार्या ई जनाई म संघवी संस्थापनाका लाख वंदनाय और अदभुत कातिभ गर्या हाई हुतायपुत्र ० भीम तृ पुत्र बनवाया इ. प्रकार य: पावार बहुत ही धनी एवं समृद्ध संघका वीरू भायां संघ व गीगइ गई चनुथं पुत्र- या लेम्ब ५४ वन का है त: कास्तिभ वन: सं. मदे भाय। पदमाई नया: सुता: म. प्र..सी १० धमनी १५०० के अासपास ही बना होगा। सा. देवपी - - चयालयोद्वरणा धरण नजभुजी .... है . जीव माय अपनको उन्नन श्रीर अवनत बनाता है। (पृष्ठ १० का शेषांश) नाम अमाका गुरु श्रामा ही है। नेतानकर रहे हैं। पर जैत्री अस्मिाका पालन कायर परिग्रहपरिमाण अथवा अरिग्रहवन विश्वशान्तिका पुरुष नहीं कर सकता । आत्म नर्भया इन्द्रिय विजयी, प्रमोघ उपायह। ममवपरिणामका नाम परिह है और मदृष्टि मनुष्य ही उसका यथेष्टरीया पालक हो सकता है। परिनतम मा होता है। अतः श्रमिक जावक लिये निय समुदार शापनकी छत्रछायामं रहकर पशु भी परिग्रह का पाया प्रमाण करना अंपकर है । परन्तु अपनी अामाका विकासकर मकं वही विश्वका पावनोनय कप ma nu भीमक सम हो सकता है। वीरके शासन में यह बाप गृहम्गामें रहकर न्याययं धनादि कम्पत्तिका अर्जन विशेषता है कि वह दुनियावी विरोधों को पचा सकता है - एवं संग्रह करे, परन्तु उसके लिये उसे सनने हा प्रयत्नकी अनेकान्त या स्यादाद द्वारा उनका निम्मन एवं समन्वय जरूरत है जिनम उसकी श्रावश्यकताओं का पनि प्रामानी कर सकता है. तथा उनकी विष 'ताको दूर करता हुअा में हो सकती ह।। श्र: गृहस्थ के लिये पारग्रहका प्रमाण उनमें अभिनव मैत्री का संचार भी कर सकता है। इसपर करना प्रायक है। मुनि कि परिग्रह सहन होने हैं। अमन करने से हमारे दैनिक जीवन की कठिनाइयां भी अनः उन्हें अपरिग्रही एवं अतिचिन कहा जाता है। मरतन महल हो सकती हैं। चाम्तव में यदि विचारकर देखा जाय गो संपारके सभी भारत के दूसरे धर्मों में यहां जीव की परतन्त्र माना अनर्योका मूल कारण परिग्रह अथवा माम्राज्यकी लिप्पा जाता है-उसके सुख दुःम्ब श्रादि सभा कार्य ईश्वरक है। इसके लिये ही एक राष्ट दूपर को निगलने एवं प्रयत्न एवं इच्छा में सम्पन्न होते बतलाये जाते हैं, वहां हापने की कोशिश करता है। अन्यथा विभृतिक संग्रहकी वीरशा नमें जीवको स्वतन्त्र गना है-यह मुम्ब दुःख अनुचित अभिलाषाक चिना रक. पान हानकी कोई अच्छे या बुरे कार्यों को अपनी इच्छामे करता है और सम्भावना ही नहीं है, क्योंकि धनयों का मुख कारण लोभ उनका फन भी स्वयं भोगना है वीरशासन में दब्यरश्मि अथवा स्त्री, राज्य और भनकी मम्प्राप्ति है। इनके लोभ में (जीवविकी अपेक्षाम) सभी जी। यमान है . परन्तु पर्याय ही महाभारत जैप कागद हुए है और ही है। अत: दृष्टि उनमें राना, रंक आदि भंद हो जाते है। इस भंदका समाजको भगवान महावीर के इन सिद्धान्तीपर "यं अमन कारण जीवोंक द्वारा पमुपाणित स्वकीय पुगय पापकर्म है। करना चाहिये। साथ ही संगठन महनशीलता, तथा वात्सल्य उसके अनुसार ही जी। अरछ। बुरी पर्याए प्राप्त करना है का अनुसरया करते हुए भगवान महावीर के सिद्धानोंक प्रचार और उनमें अपने कर्मानुसार सुख दुःखका अनुभव करना एवं प्रसार कर उसे विश्वका मा धर्म बनाना चाहिये।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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