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________________ किरण १०-११ ] रत्नकरण्ड और आप्तमीमामाका एककतृत्व प्रमाणसिद्ध है ४२५ किया गया है । अब पाठक, उनके इस अर्थकी भी तभी वे उनपर अपना लक्ष्य देना उचित समझेंगे।' परीक्षा करें। वे इसे टीकाकार प्रभाचन्द्रका बतलाते आगे आपने आप्तमीमांसासम्मत प्राप्तका लक्षण हैं। अत: उनकी टीका देखनी चाहिए कि उसमें बतलानेके लिये अपनी दृष्टिसे प्राप्तमीमांसाकी प्रथम उन्होंने 'त्रिपु विष्टपेषु' का अर्थ दर्शन, ज्ञान और छह कारिकाओंका तात्पर्य देकर उनपरसे प्राप्तके चारित्र किया है या नहीं ? टीकागत 'त्रिपु विष्टपेषु' सम्बन्धमें आप्तमीमांसाकारकी निम्न मान्यतायें के अर्थ वाला अंश इस प्रकार है फलित की हैं'क्व ? त्रिषु विष्टपेषु त्रिभुवनेषु ।' (१) देवागमन आदि विभूतियाँ, विग्रहादिइसके अतिरिक्त टीकाकारने कुछ नहीं लिखा। महोदय तथा तीर्थस्थापन यं आप्तके लक्षण नहीं, मुझे आश्चर्य है कि प्रो. मा. अपनी भूल व गलती क्योंकि ये बातें मायावियों आदिमें भी पाई जाती हैं। चंकि मेरे मतानुसार क्षत्पिपासादिका अभाव को स्वीकार करनेके बजाय पाठकोंको और मुझे विग्रहादिमहोदयमें ही सम्मिलित है अतएव श्राप्तधोखा देनेका जगह जगह असफल प्रयत्न करते हैं मीमांमाकार उसे भी प्राप्तका लक्षण स्वीकार और अपने आग्रहका समर्थन करते जा रहे हैं, नहीं करते । परन्तु उनकी यह प्रवृत्ति प्रशस्य नहीं है। दुसरे, यदि 'त्रिपु विष्टपेषु' का श्लेपार्थ दर्शन, (२) आप्तका लक्षण निर्दोषता है, जिससे उनके ज्ञान और चारित्र हो तो 'विद्या-दृष्टि-क्रियारत्न वचन युक्ति-शास्त्राविरोधी होते हैं। ऐसी निर्दोपता करण्डभावं' का उनके साथ कैसे सम्बन्ध बैठेगा ? , सर्वज्ञके ही हो सकती है जो सूक्ष्मादि पदार्थोंको क्योंकि यहाँ भी तो वे ही तीन दर्शन, ज्ञान और प्रत्यक्ष जानता है और वह सर्वज्ञ दोष और आवरण चारित्र प्रतिपादित हैं। और ऐसी हालतमें न तो । इन दोनोंके आत्यन्तिक क्षयसे होता है । विभिन्न विभक्ति (सप्तमी और प्रथमा) बन सकेंगी (३) आचार्यने 'दोपावरणयोः हानिः' यहाँ और न आधाराधेयभाव बन सकेगा। इसके द्विवचनका प्रयोग किया है-बहवचनका नहीं। अतः सिवाय, वहाँ पुनरुक्ति भी होती है । 'वीतकलंक' से उनकी दृष्टिमें एक ही दोष और एक ही आवरण अकलंक और 'विद्या' से विद्यानन्द श्लेषार्थ करनपर प्रधान है । वह दोप कौनसा और आवरण कौनसा दृष्टि और क्रियाका भी श्लेषार्थ बताना होगा, जो है ? जो हमारी समझदारीमें बाधक होता है वह किसी तरह भी नहीं बतलाया जा सकता है। इस दाप हैं अज्ञान और इसको उत्पन्न करने वाला तरह प्रो० सा० का उक्त पार्थ सर्वथा बाधित, पूर्वा- आवरण हे ज्ञानावरण कमे । इन्हीं दो का अभाव पर विरुद्ध और अशास्त्रीय हानेसे विद्वद्ग्राह्य नहीं है। होनेसे सर्वज्ञताकी सिद्धि होती है और प्राप्तता शेष वातोंपर विचार उत्पन्न होती है। पिछले लेखमें मैंन प्रो० साल की उन तीन बातों (४) ज्ञानावरणके साथ दर्शनावरण व अन्तराय पर युक्तिपूर्वक विचार करके उनमें दपण दिये थे. कम क्षय हो ही जाते है और मोहनीयका उससे पर्व जिन्हें उन्होंने अपने लेखके अन्तमें चलती-सी लेखनी ही क्षय होजाता है। अतएव आप्तमीमांसाकारने में प्रस्तुत की थीं। अब वे अपने दूषणोंको स्वीकार उनका पृथक् निर्देश नहीं किया । न करके उन्हें (तीन बातोंको) विस्तारसे प्रकट करनेकी (५) अघातिया कर्मोका सद्भाव रहनेसे उनसे मेरी इच्छा बतलाते हुए लिखते हैं कि 'न्यायाचार्य- होने वाली वृत्तियों-वचन, शरीर, क्षुधा, तृषा, शीतजीकी इच्छा यह जान पड़ती है कि इस विषयपर उष्ण, दुःख-सुख, जीवन-मरण आदि-का आप्तमें मैं अपने विचार और भी कुछ विस्तारसे प्रकट करूँ आप्तमीमांसाकारने सद्भाव माना है। यह उन्होंने
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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