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________________ २२८ अनेकान्त [वर्ष ८ गिरा-वाणी-सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणी-सरस्वती है। इसके सिवाय. भाषा-साहित्य और रचना-शैलीकी दृष्टिले प्रवर्तिका हो - जनताको सदाचार एवं सन्मार्गमें लगानेवाली भी यह ग्रंथ कुन कुन्द के ग्रंथों के साथ मेल खाता है. इतना हो-उसे 'वहकेर' समझना चाहिये । दूसरे, वहकों- ही नहीं बल्कि कुन कुन के अनेक ग्रंथों के वाक्य (गाथा तथा प्रवर्तकों में जो इरि गिरि-प्रधान-प्रतिष्ठित हो अथवा ईरि गाथांश) इस ग्रंथमें उसी तरहसे संप्रयुक पाये जाते हैं जिस समर्थ-शकिशाली हो उसे 'वट्टकेरि' जानना चाहिये । तीसरे, तरह कि कंदकंद के अन्य ग्रंथों में परस्पर एक-दूसरे ग्रन्थ के चट्ट नाम वर्तज-आचरणका है और ईरक प्रेरक तथा प्रवर्तकको दाक्योंका स्वतंत्र प्रयोग देखने में प्राता है। इतः जब तक कहते हैं सदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला है। उसका नाम किपी स्पष्ट प्रमाण-द्वारा इस ग्रन्थके कर्तृन्दरूपमें बहकेराचार्य 'वट्टरक' है । अथवा वह नाम मार्गका है, मन्मार्गका जो का कोई स्वतंत्र अथवा थक व्यक्रित्व सिद्ध न हो जाय तब प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी 'वीरक' कहते है। तक इस ग्रंथको कन्दकन्दकृत मानने और घट्टप्लेगचारीको और इसलिये अर्थकी दृष्टिपे ये बहकेरादि पद कुन्दकुन्दके सद पद कुन्दकुन्दक कुन्दकुन्दके लिये प्रयुक्र हा वर्तकाचार्य पद स्वीकार करने लिये बहुत ही उपत्र तथा संगत मालूम होते हैं। आश्चर्य में कोई खास बाधा मालन नहीं होती। नहीं जो प्रवर्तकत्व-गुणकी विशिष्टताके कारण ही कुन्दकुन्दके २ कार्तिकेयाऽनुप्रेक्षा और स्वामिकुमारलिये वढेरकाचार्य (वर्तकाचार्य) जैसे पदका प्रयोग किया गया हो । मूलाचारकी कुछ प्राचीन प्रतियों में ग्रन्थकर्तृवरूप यह अध्र वादि बारह भावनाओंपर, जिन्हें भव्यजनों के लिये आनन्दकी जननी लिखा है (गा.१), एक बड़ा ही से कुन्दकुन्दका स्पष्ट नामोल्लेग्व उसे और भी अधिक पुष्ट करता है। ऐसी वस्तुस्थिनिमें मुहद्वर पं० नाथूरामजी मीने, सुन्दर, सरल तथा मार्मिक ग्रंथ है और ४८१ गाथा-संख्याको जैनसिद्धान्तभास्कर (भाग १२ किरण 1) में प्रकाशित लिये हुए है। इसके उपदेश बडे ही हृदय-ग्राही है, उक्रियों 'मूलाचारके कर्ता वरि' शीर्षक अपने हाल के लेग्वमें. अन्तस्तलको स्पर्श करती हैं और इसीसे यह जनसमाजमें जो यह कल्पना की है कि, बेट्टगेरि या बेट केरी नामके कुछ सर्वत्र प्रचलित है तथा बड़े श्रादर एवं प्रेमकी दृष्टिसे देखा ग्राम तथा स्थान पाये जाते हैं, मूलाचारके कर्ता उन्हीं में से जाता है। किसी बेट्टगेरि या बेटकेरी ग्रामके ही रहनेवाले होंगे श्रीर इसके कर्ता ग्रन्थकी निम्न गाथा नं. ४८८ के अनुसार 'स्वामिकुमार हैं, जिन्होंने जिनवचनकी भावनाके लिये और उस परसे कोए कुन्दादिकी तरह 'वट रे' कहलाने लगे होंगे, वह कुछ संगत मालूम नहीं होती-बेट्ट और वह चंचल मनको रोकने के लिये परमश्रद्धाके साथ इन भावनात्रों शब्दोंके रूपमें ही नहीं किन्तु भाषा तथा अर्थ में भी बहुत की रचना की है :अन्तर है। बेट्ट शब्द, प्रेमीजीके लेखाउसार, छोटी कहाकि जिण-वयण-भावणटुं सामिकुमारेण परमसद्धाए । वाचक कनड़ी भाषाका शब्द है और गरि उप भाषामें पली- रइया अणुपेक्खाओ चंचलमण-रंभणटुं च ॥ रइया अणुपक्खाआ चच भोहल्लेको काने हैं; जब कि वह और बट्टक जैसे शः 'कुमार' शब्द पुत्र, बालक, राजकुमार, युवराज, प्राकृत भाषाके उस अर्थ के वाचक शन: हैं और प्रन्थकी अविवाहित, ब्रह्मचारी आदि अर्थों के माथ 'कार्तिकेय' अर्थ में भाषाके अनुकूल पढ़ते हैं । ग्रंथभर तथा उसकी टीका में भी प्रयुक्त होता है, जिसका एक प्राशय कृतिकाका पुत्र है बेट्टगेरि या बेट्टकेरि रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं पा और दूसरा श्राशय हिन्दुओंका वह पडानन देवना है जो जाता और न इस ग्रंथके कर्तृत्वरूपमें अन्यत्र ही उसका शिवजीके उम वीर्यमे उत्पन्न हुअा था जो पहले प्रग्निप्रयोग देखनेमें प्राता है, जिससे उन कानाको कुछ प्रायमर देवताको प्राप्त हुया, अग्निये गंगामें पहुंचा और फिर गंगामें मिलता । प्रायुत इसके, ग्रन्थदानकी जो प्रशस्ति मुद्रित प्रतिमें स्नान करती हुई छह कृतिकाओंके शरीरमें प्रविष्ट हुश्रा, अहित है उसमें 'श्री देकानायकतसूत्र-य । द्विधेः' जिससे उन्होंने एक एक पुत्र प्रसव किया और वे कहों पुत्र इस वाक्यके द्वारा 'बट्टेरक' नामका उल्लेख है, जो कि बादको विचित्र रूपमें मिलकर एक पुत्र 'कार्तिकेय' हो गये, ग्रन्थकार-नामके उन तीनों रूपोंमेंसे एकरूप है और सार्थक देखो. अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ पृ० २२१.२४
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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