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________________ किरण २] धवला-प्रशस्ति के राष्ट्रकूट नरेश ह ऐसी परिस्थिति में यदि मैंने भी यह निष्कर्ष निकाला यह कृष्ण प्रथम, गोविन्द दि०, ध्र वराज, गोविन्द तृतीय कि गोविन्द द्वि० की मृत्यु पन ७७६-८० में होचुकी थी आदि कई राजाओं के नामके साथ मिलती है। मादाजीने और उसके पश्चात् घ वरान ही राष्ट्रकूट राज्यका एक जोडा. भंडारकरके मतको अधूग उद्धत करके तथा रेऊ अधिपति हुआ तो इसमें प्रारत्तिकी कौनसी बात है? महाशयके मतका हवाला देकर गोविन्द द्वि० के जिनमन मोदीजीने मेरे वाक्यको कोष्ट में उद्धत करके और उससे कथित 'श्रीबल्लभ' होनेका प्रमाण उपस्थित किया है वह पहिले अपनी ओरम ही 'धनपाक ताम्रपटस' इन शब्दों भी भापका युक्तिचातुर्य ही चरितार्थ करता है । डा. को जोडकर मेरे कथन को अयुक्तिपूर्ण सिद्ध करने तथा उसे भंडारकरने जिस समय अपना ग्रन्थ लिखा था उन्हें यह सर्वथा प्रसत्य कहने का व्यर्थ कष्ट उठाया है। यह मैं भी मालूम ही न था कि श्रीवल्लभ उपाधि किया और राष्ट्रकूट जानता हूँ कि धूलियाके ताम्रपत्रमें इस राज्य-क्रान्तिका राजाकी भी है, उन्होंने वल्लभ और श्रीवल्लभमें भी कोई कोई उल्लेख नहीं है. न मेरे शब्दोंसे ही यह प्राशय अन्तर नहीं किया। उनका मत ज्यांका त्यों पूरा पढ़ लेने निकलता है। मेरा अभिप्राय तो मात्र इतना ही है कि से स्पष्ट होजाता है कि उसमें कितना बस है। ऊ गोविन्द द्वि. सम्बन्धी समस्त प्रमाणों और उपलब्ध महाशयके जिस मनका धापने उल्लेग्व किया है वह रा. जानकारीके अाधारपर उपका अन्त सन् ०७१-० के भंडारकरके वाक्योंका अक्षरश: हिन्दी अनुवाद है किन्तु लगभग ही हत्या होना प्रतीत होता। ऐसी बातों में भागे चलकर स्वयं रेऊ महाशयने यह स्वीकार किया है कि शाब्दिक वेचतानम कुछ नहीं बनता। सत्यको खोजके ध्रुवकी उपाधि भी श्रीवल्लभ थी । डा० अल्तेकरने मात्र लिये परिस्थिति और प्रमाणों का गंभीर अध्ययन तथा यह कथन ही नहीं किया कि यह उपाधि धवगनकी भी लेखकके वास्तविक अभिप्रायको समझने का ही प्रयत्न पाई जाती है, वरन् ध्र वराजके समकालीन प्रामाणिक करना उचित है। भभिजेशोंमें उसके लिये यह टपाधि म्पटन या प्रयुन. हई जहां तक जिनमेनके हरिवंशकी प्रशस्तिमें उल्लिखित २ "At the end of puran entitled Hariकृष्ण के पुत्र श्रीवल्लभका प्रश्न है उस सम्बन्धमें भी मांदी vamsa of the Digambara Jainas, it is जीकी युक्तियां भ्रमपूर्ण हैं। आपने जो यह लिखा है कि stated that the work was composed गोविन्द द्वि० की सपाधि श्रीवल्लभ पाई जाती है और यह by Jinsena in the Saka year 705 while कि 'हां डा. अल्ते करने यह अवश्य बतलाया है कि Vallabha the son of Krishna was श्रीवल्लभ उपाधि धरानकी भी पाई जाती है" वह इस ruling over the south. Govind Il. 19 ढंगसे लिम्बा कि जिपमे यह प्रकट होता है कि यह in the Kavi grant called Vallabha, उपाधि गोविन्द द्वि० की ही थी और डा. अल्तकर का while one of the names of Dhruvi अनुमान है कि वकी भी थी। वास्तव में जैमा कि रेऊ the second son of Krishna I. was महाशयने अग्न भारत के प्राचीन राजवंशमें, कथन किया Kallivallabha Govind II., therefore है. पश्चिमके सोकियों की मुख्य उपाधि 'बस्लमराज' थी must be the prince alluded t, and he और उन्हीं को जीतकर राष्ट्रकूटोंने भी इसे धारण कर लिया appears thus to have been on the था। अतः दन्तिवर्माके ममयसे ही गए कूट राजाओं के throe in the Saka year 705.01 A. D. नामक माथ यह उपाथि जगी मिलती है। हां उनमेंसे कई 783."-Bhandarpur E. H. D.. suppliएकने इम (बल्लभ) के माय श्री, पृथ्वी, लचमी, कनिment Section XI p. 1. प्रादि विशेषगा और जोद लिये थे। श्रीवल्लभ रूपमें मी ३ऊ: भा०पारा, भाग ३, प्र. ३३-३४ १ऊः भा. प्रा. ग., भाग ३, पृ०२८। ४ उपयुक-पृ. ३५
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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