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________________ १०० भनेकान्त वर्ष ८ मिलती है। क्योंकि दोनोंकी ही यह उपाधि यो और दोनों ही कृष्ण जिनमेनके हरिवंशकी प्रशस्तिका विवेचन सर्वप्रथम प्रथमके पुत्र थे। के. बी. पाठकने इंडियन एंटीक्वेरीर में किया था। उस उपर्युक विवेचनसे यह स्पष्ट होजाताजकिश. सं. पर टिप्पणी देते हए दा. फ्लीटके विक्षित श्रीवल्लभ ७.५ में जिनसेनद्वारा प्रयुक्त 'श्रीवल्लभ' शब्दमे अभिप्राय को गोविन्द द्वि० माना था । किन्तु कुछ वर्ष बाद ही यद्यपि गोविंद द्वि० वराज तथा गोविंद तृतीय-तीनोमेसे उन्होंने अपने मतको संशोधित किया। उन्होंने बताया किसी भी एकसे हो सकता है तथापि प्रमाण-बाहुल्य तथा कि श्लोक 'कृष्णनपजे' पदका सम्बन्ध, भाषाविज्ञानकी युक्ति-बाहुल्यको देखते हुए एक उल्लेखका अभिप्राय धुवराज दृष्टिमे, 'इन्द्रायुध' में होता न कि 'श्रीवल्लभ' से। और सेहो होनकी सर्वाधिक संभावना और गोविन्द द्वितीय यह श्रीवल्लभ गोविन्द द्वितीय नहीं हो सकता, गोविन्द के होने की सबसे कम । ननीय ही हो सकता है। रेऊ महाशयके अनुसार भी प्रब रह जाता प्रश्न ध्र वराज के जीवनकाल में ही कुछ विद्वान् "शक संवत् ७०५ में गोविन द्वि. के बदले भगतुग गोविन्द तृतीयक राज्याभिषेकका। धूलिया ताम्रगोविन्द तृतीयका होना अनुमान करते हैं। उनका पत्रके समय सन् ७७६ में ध्र वकी आयु ५० वर्षसे ऊपर स्वयंका विश्वास भी ऐसा ही था यह उनके अन्यके पृ. अनुमान की जाती है । उस समय उपके कमसे कम चार ६७ पर दिये हुए "मान्यखेट के राष्ट्रकूटों" के नकशेसे प्रगट पूर्णवयस्क सुयोग्य और समर्थ पुत्र थे-स्तम्भ, कच,गोविन्द होता है, जिसमें उन्होंने हरिवंश-प्रशस्तिमें सम्मिलित और इन्द्र । इस समयके पूर्व ही स्तम्भ रणावलोक गंगनरेशीको गोविन्द तृतीय का समकालीन सूचित किया, वादी प्रान्तका शासक था और कर्क सुवर्णवर्ष खानदेशका। न कि गोविंद द्वितीयका । कुछ समनात दाफ्जीट किन्तु ध्रव अपने पुत्रोंमें पर्वाधिक मुयोग्य गोविन्दको ने एक तीमरा सुझाव भी पेश किया था कि यह उल्लेख समझता था, अपने पीछे कोई गड़बड़ या राज्यके लिये ध्र वराजका होना चाहिये। उसमें उन्होंने यह हेतु दिया गृहयुद्ध न हो, इसलिये उसने अपने जीवनकाल में गोविन्द था कि "श्रीवल्लभ ध्रुवकी प्रमुख एवं विशिष्ट का युवराज्याभिषेक कर दिया था। किन्तु वह इतनेसे ही उपाधि थी जबकि गोविंद द्वितीयकी वल्लभ थी, श्रीवल्लभ सन्तुष्ट नहीं था और गोविन्दका राज्याभिषेक करके इसे, नहीं, जोकि एक बिल्कुल दूसरी बात है।" चाहे नामके लिये ही हो, गष्टकूट साम्राज्यका अधीश्वर बना अपने उपयुक्त इतिहास ग्रंथके बहुत पीछे लिखे गये देना चाहता था। गोविन्द इसमें महमत नहीं था, किन्तु अपने अन्य लेख में डा. भंडारकरने भी यह स्वीकार किया पिताकी भाज्ञा उसे मान्य करनी ही पड़ी । पैठनका ताम्रहै कि “किन्तु हम बातका निर्णय सरबतासे किसी भी पत्र स्परतया सूचित करता है कि गोविन्द के पिताने स्वयं प्रकार नहीं किया जा सकता कि (जिनसेनके) श्रीवल्लभ उमका राज्याभिषेक करके उसे राज्य मौंप दिया था। का प्राशय गोविंद द्वितीयसे है या उसके भाई ध वम? जैमाकि मैंने अपने पहले लेखमें सूचित किया था इस १ Altekar: R. T. p. 53, & Sravanbelgo बातका अभीतक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हुमा है कि la Insticripon no. 14-E.C.I: Matpari record-E. C. IV p. 93; also E. 1. X __ यह अभिषेककी रस्म कब हुई। विद्वानोंने अपनी-अपनी 1919-10 p. 84. अटाली जगाई। मन् ७७१-८० में भी ध्रव अपने २ I. A. vol. XVp. 142. ३ Ibid-note on the paper. ७ Altekar: R.T. p. 53. Y Bombay Gazeteer vol. I part II p. 395. Ibid p. 59-61. f. n. 1. Ibid p. 60, and the Paithan plates oi ५ रेऊ: भा० प्रा० ग०, भाग ३, पृ० ३८-३६ । Govind III of 794 A. D. and th ६ E. I. vol. VIp.197. Kadha plates of 814 A. D.
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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