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________________ ४२० अनेकान्त [ वर्ष ८ ___(क) एक तो यह कि हमने और मुख्तार मा. पदका उल्लेख स्पष्टत: आया है जैमा कि आगे ने जिस आधारसे 'योगीन्द्र' शब्द का उल्लेख बतलाया जा रहा है। ऐसी हालतमें प्रो. मा. का प्रभाचन्द्रकृत (गद्य-कथाकोश-गत) स्वीकार किया यह लिखना कि 'उक्त दोनों विद्वानों में में किसी है वह आधार प्रमाणभूत एवं विश्वसनीय है एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोश स्वयं अथवा नहीं? देखा है और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या किमीमे (ख) दूसरी यह कि प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोश- मुना आदि' बिल्कुल वाहियात है और उमसे उनके में उक्त उल्लेख वस्तुतः मौजूद है या नहीं ? प्रयोजनका जरा भी साधन नहीं होता। प्रत्युत (क) पहली बातके सम्बन्धमें मेरा निवेदन है कि इससे उनकी अविचारताका प्रदर्शन होता है। अतः प्रमीजी जब ब्रह्म नेमिदत्तकी कथाको प्रभाचन्दक हमारा आधार कच्चा नहीं है-वह पृणतः सहद है गदाकथाकोश परसे स्वयं-दूसरोंके द्वारा भी नहीं- और इमलिये वह प्रमाणभूत एवं विश्वमनीय है । मिलान करके पूर्ण अमन्दिग्ध शब्दों में यह लिखें कि यह आगेके प्रमाणसे भा सिद्ध और मुम्पए है। "दोनों कथाओं में कोई विशेष फर्क नहीं है, नमिदत्तकी (ख) यद्यपि प्रमीजीके उक्त लेग्यपर हमाग दृढ़ कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण अनुवाद विश्वास था, परन्तु प्रो. मा. के श्राग्रह और वहमहै।" तो उनके कथनको प्रमाणभूत एवं विश्वसनीय का दबते हुए उनके मन्तापार्थ हमने गत जनवरी कैसे नहीं माना जा सकता है? हम नहीं समझने मन १९४६ में ही श्रद्धय प्रमीजीस प्रभाचन्द्र के उक्त कि प्रो. मा. बिना किसी विरोध-प्रदशन प्रेमीजीक गद्यकथाकाशको भेजनकी प्रार्थना की और उन्होंने उक्त लेग्बको क्यों अप्रमाण, अविश्वसनीय अथवा उमी ममय उस हमारं पाम भेज दिया। जैमाकि सन्दिग्ध प्रकट कर रहे हैं ? केवल वह लेख बीस वर्ष निश्चित किया गया था. इस प्रथम प्रभाचद्रने पुराना हो जानेसे ही अप्रमाण एवं अविश्वमनीय 'यागीन्द्र' शब्दका स्वामी समन्तभद्रके लिय म्परतः और सन्देहका कारण नहीं बन सकता है। अन्यथा प्रयोग किया है वह भी एक ही जगह नहीं, बल्कि कोई भी पुराना लेख अथवा ग्रन्थ प्रमाण और दो जगह और १४ जगह तो उनके लिये 'योगी' विश्वसनीय नहीं हो सकेगा। मान लीजिये कि उक्त शब्दका भी प्रयोग किया है । यथाप्रभाचन्द्रका गद्यकथाकोश हमने अथवा मुख्तार मा. 'योगी' पदक उल्लेखने स्वयं नहीं देखा । पर उसे एक प्रामाणिक व्यक्तिन (१) 'यागिलिंगं धृत्वा वारणारम्या....'.--प. ५। स्वयं अच्छी तरह देखा, जाँचा, पढ़ा और पारायण (२) योगिना चोक्तमस्त्येव...' पत्र १८ पं.४। किया है और वह हमें लिग्वे कि नमिदत्तका (३) 'ततस्तत्रत्यलोक राज्ञः कथिनं देव ! कथाकोश प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशका प्रायः पूर्ण योगिनैकन भवदीय...'-पत्र १० । अनुवाद है और हम इस आधारसे यह निष्कर्ष (४) 'नना योगी भरिणती...' पत्र १०, पं.८ । निकालं कि 'जब प्रभाचन्द्रक गद्यकथाकोशपरसे (५) 'योगी न किंचिद्देवमवतीय भोजन....'पूर्णतः (शब्दशः और अर्थशः) अनुवादिन नमिदत्तक प. १० उ. पं. ७ । कथाकोशमं स्वामी ममन्तभद्रकं लिये 'योगीन्द्र' (६) योगिनोक्तं मदीयनमस्कारममौ मोदन पद उपलब्ध होता है तो वह प्रभाचन्द्रके गद्य- शक्नोति...'.--प. १०, उ. पं. ९। कथाकोशमें भी उनके लिये आया है, यह कहनमें (७) 'ततो योगिनोक्तं प्रभाते सामथ्र्य..." कोई आपत्ति नहीं है तो इसमें क्या अनहोनी और पत्र ११ पू. पं. २। कशापन है ? जब कि हम देख रहे हैं कि प्रभाचन्द्र के (८) योगिनं देवग्रहमध्य प्रक्षिप्प..."-प. ११, गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्र के लिये 'योगीन्द्र' ५. पं.३।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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