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________________ किरण १] स्व० बा० सूरजभानजी वकील प्रक्षिप्त ह'नेमे उसका कोई गौरव नहीं बढ़ सकता ! और पृट नं. १६३ पर फुटनोट में भतार जीके एक श्लोक यहाँ यह निवेदन कर देना भी अनुचित नहीं होगा का दित किया है । इससे यह ना स्पष्ट है कि अनुवादक कि 'श्रात्मानुशासन' के बिदान टीकाकरने अपनी प्रस्तावना मादयने अनुवाद में पूर्व शतकत्रयको भी अवश्य देखा में ये शब्द भी निखे है कि-"श्राज कल के मंहत दंगा, किन्तु श्लोक नं. ३२ की बाबत उन्होंने अपनी विद्वानों में गापि मनहरिकी कविताका यहत श्रादर्श है। प्रस्तावना में कुछ भी लिखनेका कष्ट नह। उटाया, श्राश्चर्य हे ! परन्तु गुणभद्रम्वामीकी इस कवितामें भी कुछ कमी नहीं है, विटुजन इम पद्मपर गहरा विचार कर यथेष्ट प्रकाश बल्कि कितने ही अंशोमें यह उससे भी बढ़ चढ़ कर है।" डालने की कृपा करेंगे। - स्व० बाव सूरजभानजी वकील! "जिसपर सबकी निगाह थी न रहा। मामलोमें युक्तिप्रमाण की अपेक्षा श्रागम-प्रमाणको अधिक कौममें एक चिराग था न रहा ।।" श्रमर कारक समझते थे। बाबू मा० का १६.६४-५ के शेज स्वर्गवास दोजाना एक बार अष्टद्रव्यपूजाके बारे में मैंने अपने विचार पटकर अोवाके अागे अँधेगछा गया । उन्हें दर्शाए श्रीर श्राग्रह किया कि वे इस विषय पर कुछ बाबू सा० के दर्शन में सिर्फ एक बार कर सका। प्रकाश डालें । मेरे श्राग्रहका जो उन्होंने उत्तर दिया वह मन् १६२५ में स्व. बा. सूरजमल जी जे.के. प्राध्यपत्र पत्र ज्योका त्यो नीचे अंकित करता हूँ -- चि. नेमीचंद के अन्तर्जातीय विवाह के समय विजयगढमें "मैं श्रापम पूरी तरह सदमन है कि श्रद्रव्यमे पृजा हम सब मिले थे। बाबू सा० सूरज जैसे बड़े दी हसमुन्न थ। करना नामद्धान्त अनुकूल नहीं है, इसहीम में स्वयं भी और मिलनमार तो ऐसे थे कि वे वृद्ध होकर भी हम होटो इमके विमल श्रावामा उठाना चाहता है, परन्तु अभीतक के साथ एकमेक होगये थे। प्रथम शास्त्रीय प्रमाण न मिलने से इसपर कुछ नही लिख मैंने बाबू मा० के प्राय: सभी लेख पढ़े है, गजबके मका है।.......... साफ २ श्रागमप्रमागगक विना नर्क के लेखक थे। उनकी ममझावट सयुक्तिक और कलापृा यौ। श्राधापर हा ऐसे प्रचलित व्यवदारक विरुद लिखना वडव मे कड़वी बात को ऐसे मधुर शब्दोमें रख देते थे कि बिलकुल ही निष्फल इंगा । मैं स्वयं प्रमाग की तलाशम वह फौरन गले उतर जानी । मैंने तो उनकी रचनाको हैं, मिलने पर जरूर लिगा। श्रापको भी जो प्रमाग "शुगर कोटेड कुनैन" की उपमा दे रखी है । वाकई में जेन मिलते रहे, जरूर मेरे पास भेजने की कृपा करते रहे " समाजका दुराग्रहरूपी मलेरिया ज्वर उतारने में उनकी वीर मेयामन्दिर, मरमावा श्रापका--- रचनाने काफी सफलता पाई है। ता०२२३६ गृजभान वकील" बाबू मा. अपने लेखोको म्यूब लंबा कर के भं' उममें श्रास्विर न रहा गया और इस विषय पर हम दोनोने विरसता नही श्राने देते थे। काठनमे कठिन विषयको सरल पकने दूसरे की राहन देखते हए अलग २ कर लिया। से मग्न रूप लिख देना उनके लिये मामूली बात थी। मैंने सूरत के दि. जैन ( ता. १५॥१२॥३६ ) के. मुभाग में अभी जो अनेकान्तके दूसरे तीसरे वर्षम उनके लेग्ब "पृजाम विकार और मुधार" नामक लेबलम्बा और बाबू (भाग्य पुरुषार्थ, हम हमारा संमार, गोत्रकर्म, वीर का वैज्ञानिक मा० ने भी जयपुर के जैनबंधु (ता. २०११॥३६) "दमारी धर्म, जैनधर्मकी विशेषता) श्रादि प्रकट हुए हैं वे इस बात के जानिधि" नामक लेख लिवा।। सबूत है। इस प्रकार मेग बाबू मा० के माथ परिचय था। बाबू बाबू मा० सत्यकी अपेक्षा तथ्यपर अधिक ध्यान देते मा. के निधन से जैन समाजको जो क्षति हुई है उसकी थे। ऐसे मत्य को प्रकट करने में उन्हें ऐतराज रहता था जो पनि महज नहीं है । तथ्यहीन दो-उचित परिणामप्रद न हो, अर्थात् सुधार के -दौलतराम मित्र इन्दौर
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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