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________________ आत्मानुशासनका एक संदिग्ध पद्य ( लेम्बक-श्रीलक्ष्मीनारायण जैन ) . जल्ला एक दिन श्रीगुणभद्राचार्य विचित श्रात्मा- अन्तर नही पड़ता और 'ऐगवणके दोनों शब्द भी एक ही नुशासन' को, जिसके भाषाट काकार पं. अथके वाचक है। ऐसी अवस्थामें साधारण पाठान्नगेंके वंशीधरजी शास्त्र और प्रकाशक जेनग्रंथ होते हुये भी यह कहनेका साहस नहीं होता कि ये दोनों रत्नाकर कार्यालय-बंबई" हैं, स्वाध्याय कर श्लोक दोनों महाकवियोंकी पृथक २ रचनायें हैं। अब रहा था उसमें श्लोक नं. ३२ निम्नप्रकार है- देवना केवल यह है कि इस श्लोकका क्रम स्थान, रचनानेता यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वन सुराः सैनिकाः, शैली, और पौगणिक मान्यताप्रोको देखते हुये उक्त स्वर्गो दुर्गमनुग्रहः खलु हरररावणो वारयाः। दोनों महाकवियोमें से यह किसकी कृति होना अधिक संभव इत्यामयबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्नः परैः संगरे, हे । श्रीमतहारके नीतिशतकमें यह श्लोक "देवप्रशंसा" तद् व्यक्तं ननु देवमेव शरणं धिम्पिग वृथा पौरुषम् ॥ शपिक में आया है, और उससे शीर्षककी अक्षरश: वृष्टि इस श्लोकके पढ़नेपर इसकी मान्यताएँ जैनागमान- होता है, उसकी पौराणिक मान्यतायें भी उन्हींके अनुसार हैं सार प्रतीत नहीं हुई। यद्यपि विदान टोकाकारने दम श्लोकके भार रचना-शेली भी उनकी रचनाशेल के सामान ही है. नीचे एक लम्बा फुटनोट देकर इसे जैन मान्यताशोक श्रतएव यह अधिक संभव है कि इस श्लोकके कर्ता श्री अनुसार ही सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, किन्तु इस फुट भर्तृहरि ही हों। विरुध 'श्रात्मानुशाशन' म जहां यह श्लोक नोटके पढ़नेसे ऐसा प्रतीत होता है कि शायद स्वयं टीकाकार अाया है वहां प्रथम तो 'देव' विषयक कोई चर्चा ही नहीं को भी मेरे ह। समान संदेह हुआ हो, और उस समय इम है, दूसरे बसके श्रागे पीछेके श्लोकोम इसका कोई सम्बन्ध श्लोकको प्रक्षिप्त सिद्ध करनेका कोई साधन न पाकर, नही बैठता-न इसकी पौराणिक मान्यताएँ दी जैन श्रागम के. पाठकोंके भ्रम निवारणार्थ ही उनको यह फुटनोट देना पड़ा श्रनुमा है, और यदि उस लोक को वहां से हटा दिया जावे ६।। दुमरे, यह भी स्मरण हुश्रा कि यह श्लोक पहिले भी त। भी मूल ग्रन्यके विषय-वर्णनमें कोई अन्तर नहीं पाता कहीं एक नहीं अनेक बार पढ़ा जाचुका है। अतएव इस अन: इस श्लोक के 'श्रात्मानुशासन' के कर्ता की कृति होने में शंका-समाधान के लिये खोज की तो यह श्लोक श्रीभतृहरि - भारी संदेह है। विशेष करके जबकि 'श्रात्मानुशासन' में कृत शतकत्रय (श्री बैंकटेश्वर प्रेम-बम्बई) के नीतिशतकम ऐसे ही विषयका प्रतिपादन करनेवाला जैन मान्यताश्रोसे "देवप्रशंसा" शीर्षक के नीचे नं. ८६ पर मिल गया। श्रोतप्रोत सुन्दर व भावपूर्ण श्लोक नं० ११६ मौजूद है, जिसका पाठ इस प्रकार है जिसका रू। इस प्रकार हैनेता यस्य बृहस्पति: प्रहरर्ण वज्र सुराः सैनिकाः, पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः फिकर हव , स्वों दुर्गमनुग्रहः किल हरेरावतो वारणः । स्वयं पृष्ठा सृष्टेः पतिरथ निधीनां निजसुतः । इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलिभिभग्नः परैः संगरे, शुधित्वा षण्मासान् स किन पुरुरप्याह जगतीतदम्यक्तं वरमेव देवशरणं विग्धिवृथा पौरुषम् ॥ महो केनाप्यस्मिन् विलसितमलंध्यं हतविधेः ।।११६॥ इन दोनों श्लोकोंके मूलपाठकी तुलना करने पर इनमें ऐसी अवस्थामें मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह कोई मौलिक भेद दिखलाई नहीं देता, जो साधारण पाठ किमी लेखक महोदयकी कृगका ही फल है, अन्यथा द नजर अाते है उनसे मूल श्लोकोके श्राशयमें कोई 'अमानुशासन' जैसो पाण्डित्यपूर्ण कृतिमें उक्त श्लोक के
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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