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________________ १६४ भनेकान्त [वर्ष - तथा पुश्तैनी हक हो और उसका मनचाहा बटवारा कर को सुलझाकर सफलता पूर्ण पथप्रदर्शन करनेमें अच्छे २ लिया ह।। यदि कोई व्यक्ति किसी अस्पृश्य द्वारा छू लिया अनुभवियोंको भी दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है। यदि जाता है तो वह किसी भी जलाशयके साधारण जल में स्नान भविष्य में भी वीर-संदेशकी और ममाजकी ऐसी ही उपेक्षा कर शुद्ध हो जाता है, पर यदि वही अस्पृश्य व्यक्ति भगवान वृत्ति रही और ममा जके मुखिया ऐसे ही स्वार्थान्ध लोगोंको के मन्दिर में प्रवेश कर जाता है, तो मन्दिर और पतितपावन बनाये रक्खा तो वीरका संदेश इतिहासकी ही सामग्री रह जायेगी। करुणासागर भगवान भी अपवित्र होजाते हैं। एक समय नवीन मन्दिरनिर्माण, वेदीप्रतिष्ठा, जलविहार वह या जबांके मनुष्योकी कौन कहे पशु-पक्षी तियेच भी वीर रथोत्सव श्रादि जिनमें समाज अन्धे होकर लाखो रुपये पानी संदेशको श्राभेदरूप समानाधिकारसे सुनते थे, और अपना की तरह बहा देता है, ऐसा करनेसे समाज धर्मात्मा बन श्रात्म कल्याण करते थे, और अाज थोड़ेसे नामधारी बनियों जायगा, अथवा धार्मिक वास्तविक उत्थान होगा, ऐसा मेरा ने जिनको कायर कह कर हिकारतकी दृष्टि से देखा जाता है, विश्वास नहीं है। भगवान वारने जिस देशको मर्वसाधारण श्राने धार्मिक साहित्य तकको अल्मारियोमें बन्द कर ताला तक पहुँचाने के लिये महान त्याग और द्वादशवर्षीय कठिन डाल रखा है. धर्मानुयायियोंकी जब इतनी संकुचित, दूषित तपश्चरण किया था, उसे जीवित रखने के लिये हमें भी मनोवृत्नियां दौ,फिर धार्मिक मामाजिक सभी प्रकारसे ह्रास होनेमें त्याग करना पड़ेगा। श्राज हगरा इतना ही स्याग और आश्चर्य ही क्या है ? अात्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् तपश्चरण पर्याप्त होगा कि हम वीरसंदेशके प्रमुख २ सिद्धान्तों इस द्धिान्त के अनुसार ममाजसे जैसा व्यवहार श्राप का प्रचार करने में जुट जावें. और उसमें अाने वाली विघ्न अपने प्रति कराने के अभिलाषी हैं वेसाही दूसरोके प्रति बाधाओंसे हम तनिक भी पीछे न हटें । हमारा कर्तव्य है कीनिये! यार-संदेशका विश्वप्रेम यही है । इम सिद्धान्तका कि हम प्राचीन वस्त प्राचीन इतिहास, और धार्मिकमाहित्य श्राचरण करने पर हमारी अन्तरात्मा अपने पापही दिव्य के अन्वेषण संकलन और संरक्षणा में जट जायें, क्योंकि ये ज्योतिस पालोकित हो नठेगी और एक २ व्यक्ति जब अपनी ही हमारी वास्तविक निधि है, यदि हम त्यागपूर्वक इन इस प्रकार प्राध्यात्मिक उन्नति करलेगा तो समूचे राष्ट्र और कार्योकी पूर्तिमं लग सकते हैं, तो यह माना जासकता है समाजका मामहिक रूपमें फिर उद्धार होने में देर नहीं लगेगी। कि हम वीरके संदेशको समझ सके हैं, और उसकी पूर्ति में हम देखते है कि कुछ लोग हाथमें सुमरनी, माथे की लकीर रिना, माय भी लगे हैं। •Young men are the mirror to पर चन्दन और वक्षस्थल पर यज्ञोपवीत धरण कर तीन २ । _heep in to the soul of a nation” किसी भी बार उपासनालयामें जाते है । धार्मिक ग्रन्थोंक पाठोंको पढ२ राष्ट्र तथा समाजकी अन्तर श्रात्माका प्रतिविम्ब देखने के कर फाड़ डालते हैं. पूजा पाठ और स्वाध्याय करते समय लिये नययुवक ही दर्पण हैं । वीरका संदेश जो हमारे राष्ट्र ज्ञात होता है मानो वार के संदेश प्रसारक गणधर यही हों। यहा हा। और समाजकी ही नहीं विश्वकी तुल निधि है, अक्षयधननाना प्रकारके व्रत, उपवास, एकाशन, बेला, तेला अादि गांश है। श्रार्यसभ्यता और भारतीय संस्कृतिका निर्मल दर्पण अपने त्याग और तपश्चरणक परिचय देनका भी प्रयत्न है. और जो जैनसंस्कृतिका अाधारभत प्राणु है. आज अप्रकरते हैं । पर--- काशमें हैं। राष्ट्र और समाजकी भावी श्राशायें हम नवयुवकों सत्वे मंत्री गुणिषु प्रमं दम् , क्लिषु जीवेषु कृपत्वम्। पर निर्भर हैं अाज हमें प्रचलित कुप्रथाओंका उन्मूलन कर माध्यस्थ्य भावं विपरीत वृनौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ उपर्युक्त निर्दिष्ट कार्यक्रम के अतिरिक्त ग्रामशिक्षा और इन सिद्धान्तोंका जीवन में अंशन: भी पालन नहीं करते ग्रामसुधार की दिशामें भी प्रगतिशील होना चाहिये। यदि विपरीत इसके स्वार्थमाधनाहेतु धर्म, कर्म तथा दैनिक हमने इन मुधार योजनाओंमें भाग लेकर उनके पूर्ण उत्तरव्यवहार तीनोंका तिगुड़ इकट्ठा कर माली भाली जनताको दायित्वको सम्हाल लिया तो हम " वीरका संदेश" पुन: ऐसी धार्मिक भ्रान्ति में डाल देते हैं, कि पुन: उन ग्रन्थियों विश्व के समक्ष उसी रूपमें रखने के अधिकारी बन सकेंगे।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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