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________________ वीरके संदेशको उपेक्षा (ले०-या प्रभुलाल जैन 'प्रेमी') श्राजमे लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व, जबकि इस धर्म- जीने दो" इतना ही नहीं, विवेक पूर्ण जीवन बिताने के लिये प्रधान देशमें अधार्मिकता, अत्याचार और अनाचारों ने उत्माहित भी करो यही वीर-धर्म है। आज हम वृक्षके पत्ते अपना नग्न ताण्डव प्रारम्भ कर दिया था, दुखित, मर्माहत तोड़ने और दरी शाक भाजी काटनमें भले ही जीव-रक्षा और भूले भटके प्राणियोको उचित पथ प्रदशक कोई कहीं का ध्यान रखलेते हो, पर नि:संदेह प्राणियों के साथ जो श्राज दृष्टिगोचर नहीं होता था, मानव समाज के हृदयसे मनुष्यत्व व्यवहार होरहा है वह मानवतासे परे है । प्राणीमात्र की कोसों दूर भाग चुका था, कर्तव्याकर्त्तव्यपर विचार करनेके रक्षाके स्थान में हम उसको अरक्षित दशामें छोड़ कर है। लिये मस्तिष्क दिवालिया बन चुका था, पशुयज्ञ ही एक मात्र शांत नहीं हो जाते पर उसका विनाश कैसे हो इसके लिये शांति और कल्याण के साधन बतलाकर पराकाष्ठापर पहुँचा तरद २ के साधन जुटाने और जुटवानेका प्रयत्न करते हैं। दिये गये थे-नरमेध यज्ञ तक होने लगे थे। प्राणी दीन और जिस संदेश में अात्माभिमानकी गंध तक नहीं थी छूत के भूत श्राश्रय हीन, मणिविहीन सर्पकी तरह तड़फड़ा रहे थे,तब मूक भागते थे, 'जन्मना जायते शूद्रः' मतानुसार ऊंच नीच पशुश्रो तथा निरपराध और नि:महाय प्राणियोंकी दुखित वेद- का भेद संस्काराधीन था, वहाँ स्वार्थी समाज के मुखिया कहे नाओं और मर्माहीन अाहोंसे करुणानिधानका भी करुण हृदय जाने वाले लोगोंने अपने जीवनका यह लक्ष्य बना कर किभर आया। उनकी पुकार सुनी और वे आये । उस भीषण स्थिति में भगवान वीरने अपने दिव्य संदेश-द्वारा अधर्म के चाहे भारत गारत होय हमें क्या करना संसार अनोखा स्वाद, हमें ३ चखना' गढ़ तोड़े, अशांतिका साम्राज्य नष्ट किया, अन्ध-श्रद्धा और अन्ध भक्ति को पंगु किया, अज्ञान और अन्धकार समूहका धर्म के नाम पर ऐमी विकृति नीति फेलादी है जिसे विध्वंस कर ज्ञान प्रभाकरकी प्रभासे चोर प्रकाश देखकर कौन ऐसा पाषाण हृदय मानव दोगा जिसकी प्रोखों फैलाया, उनके इन्दों श्रात्म कल्याणकारी उपदेशोंको विश्व से अश्रधाग का स्रोत न उमड़ पड़ता हो ? यदि संस्कार इतिहास वीर-संदेश नामसे पुकारता है। और अधिकारी पर नीच कुलोत्पन्न व्यक्ति श्रात्मकल्याण प्राणीमात्रकी रक्षा करो, अपराधीके अपराधको केवल हेतु पतित पावनालय में प्रार्थना करने जाना चाहता है तो क्षमा ही न करो, अपितु उसके प्रति प्रेम और दयालुताके उमे उसके प्रवेशमे पतितपावनालय के अशुद्ध दी जाने का भाव प्रदर्शित करो। संसारके सभी प्राणियोंको समानता भय दिखाकर बुरी तरह धुनकार दिया जाता है। किसी से की दृष्टि से देखो । प्रचलित कुप्रथाश्रोंके भाव न बन कर छोटा अथवा बड़ा केमा ही अपराध हुआ हो चाहे फिर वह समय और स्थिति देखकर ही पथप्रदर्शन करो । वीर-संदेश धार्मिक दो मामाजिक हो अथवा राजनीतक हो, उसे उपासना के इन सैद्धान्तिक अंगों के प्रचार और प्रसारकी विश्व लय ( पतितपावनालय ) में जाकर पतितावनकी पृजन कल्याण की दृष्टि में आज भी उतनी ही आवश्यकता है, भक्तिसे वंचित रखना यही समाजने आज दण्डविधान जितना इन सिद्धान्तों के प्रवर्तकके आविर्भाव काल में थी। निर्माण कर रखा है। ऐसे ही कारणों में एक राष्ट्र में कई वीर-मंदेश वीरका वीर के लिये दिया गया संदेश है । और विभिन्न मत और मतानुयायियोका जमघट इकट्ठा होगया है, सच्चा वीर वही है जिसने अपने प्रारको जीत लिया हो। और गष्ट, समाज तथा जाति के अनेक छोटे २ विभाजन होने जो अपने ही हृदय स्थित बैरियोंसे पराजित होकर दसरोको से अलग २ उपासनालय और अलग २ उपासनाके ढंग जीतने की लालसा करता है वह कायर है। "जीओ और बना लिये है। मानो परमात्मापर जाति-विशेषका जायदादी
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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