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________________ दृष्टवाद और होनहार ( श्री दौलतराम 'मित्र' ) 101 इस विषय में कितने ही मत हैं, कोई कुछ कहता है, कोई कुछ कहता है। उनमें सर गुरुदास बनर्जीका मत वैज्ञानिक है । देखिये मैंने इसपर एक तुकबंदी की है, वह यह है"कारण हो अनुकूल, कार्य प्रतिकूल न होगा । हों कारण प्रतिकूल, कार्य अनुकूल न होगा || होनहार है यही, करो यह मनमें धारण । होनहार शुभ हेतु इकट्ठे करो कारण || सर गुरुदास वनर्जी कहते हैं "अष्टवाद कहने से अगर यह समझा जाय कि मैं किसी वांछित कार्यके लिये चाहे जितनी चेष्टा क्यों न करूँ, अदृष्ट अर्थात मेरी न जानी हुई कोई “अलंघ्यशक्तिर्भवितत्र्यतेयं हेतु-याविष्कृत-कार्यलिङ्गा । अनीश्वरो 'जन्तुर इंक्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः — स्वयम्भूस्तोत्र अलंघ्य- अनिवार्य शक्ति उस चेष्टाको विफल कर देगी, तो अदृष्टवाद माना नहीं जा सकता; क्योंकि वह कार्य-कारण-सम्बन्ध विषयक नियमके froद्ध है । किन्तु यदि अदृष्टवादका अर्थ यह हो कि कि कार्य-कारण-परंपरा क्रमसे जो कुछ होने को है, और जो पूर्णज्ञानमय ब्रह्मर्के ज्ञानगोचर था कि ऐसा होगा, उसीकी ओर मेरी चेष्टा जायगी - दूसरी ओर नहीं जायगी, तो वह अदृष्टवाद माने विना नहीं रहा जा सकता । कारण, वह कार्य-कारण- संबंध विषयक अलंघ्य नियमका फल है ।" (ज्ञान और कर्म पृ०१६२) सम्पादकीय नोट - सर गुरुदास बनर्जीने अदृष्टवाद अथवा भवितव्यता (होनहार ) के विषय में कार्यकारणसम्बन्ध विषयक जो बात कही है वह आजसे कोई १८०० वर्ष पहले विक्रमकी दूसरी शताब्दीके विद्वान् महान् श्राचार्य स्वामी समन्तभद्रके निम्न सूत्रवाक्य में संनिहित ही नहीं कितु अधिक स्पष्टता के साथ कही गई है : मिले सफलता यदि नहीं, हैं कारण प्रतिकूल । निःसंशय यह जानिये, हुई कहीं भी भूल || " इसमें अध्यशक्तिर्भवितव्यताको 'हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा' बतलाया गया है और उसके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि अन्तरंग और बहिरंग अथवा उपादान और निमित्त दोनों कारणोके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होनेवाले कार्य में भवितव्यता जानी जाती है अर्थात् भावी होनहारके साथ कारण-कार्य-नियमका सम्बन्ध अटल है । इसमें हेतुका 'द्वय' विशेषण अपना खास महत्व रखता है, सो सर गुरुदासजी के कथनपर से स्पष्ट नहीं है और इससे उत्तरार्ध में उस संसारी प्राणीका श्रहंकार से पीडित और अनीश्वर ( कार्य करने में असमर्थ ) बतलाया गया है जो उक्त भवितव्यता श्रथवा हेतुद्वयकी अपेक्षा न रखता हुआ अनेक सहकारी बाह्य कारणोंको मिलाकर ही कार्य सिद्ध करना चाहता है । और इसलिये लेखकने "कोई कुछ कहता है, कोई कुछ कहता है” इन शब्दोंके द्वारा दूसरे सभी कथनोंपर जो रुचि व्यक्त की है वह समुचित प्रतीत नहीं होती ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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