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________________ अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंसे आवश्यक निवेदन अनेकान्त' के प्रेमी पाठकोंस यह बात छिपी हुई यह सब मह लयत सिर्फ प्रचारकी दृष्टि की गई है। नहीं है कि अनकान्न' ने जैनसाहित्य और जैन- खेद है कि अबकी बार कुछ श्रीमान ग्राहकोंने बीपियाँ ममाजकी क्या क्या मेवाण की हैं ओर कर रहा वापिम की हैं। इसका कारण शायद यही मालूम होता है। कार्यालय में इस विषय के अनेक पत्र आरहे हैं। है कि वर्ष ८ की १ ली किरण लगभग ४ माह बाद अभी भारतके प्रसिद्ध विद्वान् सर यदुनाथ सरकार प्रकट होसकी है पर वापिसी में यह कारण नहीं होना कलकत्ताने अनेकान्तकी प्रशंमा करते हए लिखा है- चाहिये, क्योंकि इस किरणके जनवरी में निकालने की म शोध-खोजक महत्वपूर्ण पत्रका विदेशों में सूचना अनेकान्त' सम्पादक पहले ही कर चुके थे। प्रचार होना चाहिए और उसका अंग्रेजी संस्करण भी और फिर भी इसमें ग्राहकों को कोई नुकसान नहीं निकालना चाहिए, इमस हजारों पाठकों के लिए ज.धर्म क्यों क उन्हें पूरी किरणें दी जायेंगी और वें वर्ष और जैनमाहित्यका ठीक ठीक परिचय मिल सकेगा।' का प्रारम्भ भी इसी जनवरी मामसे किया गया है। ___कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय राष्ट्र में हिन्दी अतः यदि उन श्रीमान ग्राहकोंने वी० पी० भूलसे के जो कुछ महत्वपूर्ण-साहित्यिक पत्र निकल रहे हैं वापिस की हों या मुनीम आदि द्वारा की गई हों तो उनमें 'अनेकान्त' का अपना ग्बाम स्थान है। फिर भी वे पत्रकी उपयोगिता और महत्वको समझकर पुनः यह खटकने योग्य है कि इसके पाठक, मर यदुनाथमर- मंगालें । पत्र कितना उपयोगी और महत्वका है यह कारक शब्दों में हजारो' नहीं हो पाये हैं। आज तो वह दर न जाकर इमी आठवें वपंकी पहली किरणसे ही. समय है जब लोग एक दृमरे के नजदीक आना चाहते जिसे उन्होंने वापिस कर दिया है, मालूम हो जाता हैं-एक दुसरेक धर्म दर्शन, सिद्धान्त, साहित्य, इति- है। हम अन्य लेखांका. जो मब ही खोजपूर्ण और हाम, पुरातत्व और कलाका जानने के लिये उत्सुक हैं। महत्वके हैं, यहाँ उल्लेख नहीं करते। केवल प्रोफेसर ऐन ममय भगवान महावीर के अपरिग्रह, अहिमा और बालाप्रसाद सिंहल एम० ए०, एल-ल० बी० के अनेकांत आदि गौरवपूर्ण लोकहितंकर सिद्धांतों को प्रचा- 'वानर-महाद्वीप' शीर्षक खोजपूर्ण लेख और उसपर रित करने तथा जैनमाहित्य, जैनइतिहास, जैनपुरातत्व सम्पादक द्वारा लिखे गये महत्वपूर्ण नोटका जिक और जैनकलाका लोकको परिचय करानेका बड़ा सुन्दर करते हैं जो जैन पुराणों में वर्णित विषयों की प्रामाअवसर प्राप्त है। मतलब यह कि मांस्कृतिक उन्नतिके, गिगकता और उनकी सचाई की कितनी ही घोषणा लिये आजका समय बड़ा अनुकूल और वणिल है। करते हैं और इसलिये ऐस लेखों का मूल्य कुछ भी और अनेकान्त इन बातों की कितने ही अंशों में पूर्ति नहीं आंका जा सकता । इसी प्रकारका ‘रादा से पूवकी करता है। ५३ वर्षकी जंत्री' वाला लेख है। अतः अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंस अनुरोध है कि यहां पर पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि वे इसके बहमंख्या में ग्राहक बनावें । जैनेतर विद्वानों, कितने ही अनेकान्त प्रेमा सजनोंने अपनी ओरस लायरियों, पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों, म्युजियमों विद्वानों, छात्रों और संस्थाओंको अनकान्त अद्ध कीऔर मन्दिर-उपाश्रयों में इस पत्रको अपनी ओरस मतमें भिजवाने की स्वीकृति प्रदान की है, इसके लिये अथवा दुमरोंमे प्रेरणा का के भिजवावें। अनेकान्तका वे धन्यवाद के पात्र हैं। अतः जिन विद्वानों छात्रों मूल्य मिर्फ ४) है। पर चार स्थान को फ्री भिजवाने और संस्थाओंको अनेकान्त अद्धं मूल्यमें मंगाना हो चालोस मात्र १४) और आठ स्थानोंको फ्री भिजवाने वे शीघ्र ही २) मनीआडरमे भेजकर उसे मंगालें। वालोंस २८) ही लिये जाते हैं। दशसे अधिक हो फ्री अन्यथा बादक मंगाने पर भेजने में लाचारी होगी। भिजवाने वालोंसे प्रतिव्यक्ति मूल्य ३) लिया जाता है। -दरबारीलाल जैन, कोठिया
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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