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________________ ७४ अनेकान्त [वष ८ कथाग्रंथोंके निर्माणका उद्देश्य रखकरण्डश्रावकाचार पद्धबिया छंद २६ संधियों और चारहजार . जैनाचार्यों अथवा जैन विद्वानों द्वारा कथाप्रन्थोंके बनाये चारसौ तेईस श्लोकोंमें समाप्त हुकाहै। इसका रचनाकाल विक्रम संवत् ११२६१ जब कि श्रीवालपुरमें नरेन्द्रका जानेका समुद्देश्य केयज यह प्रतीत होता है कि जनता सं. यमसे बचे और प्रतादिके अनुष्ठान द्वारा शरीर और प्रारमा राज्य था। इस ग्रन्थ में भी सन्याशन के निशंकितादि अंगों की शुद्धिकी ओर प्रसर हो । साथ ही. दुर्व्यसनों और में प्र सन्द होनेवालीकी कथाएँ बीच बीचमें दी हुई हैं। अन्याय अत्याचारोंके दुरे परिणामोंको दिखाने अभिप्राय धम्मपरिक्खा-इस पंथके कर्ता मेवाडवासी केवल उनसे अपनी रक्षा करना है और इस तरह जीवनकी धमवंशी कविवर हरिषेण हैं जो गोवर्द्धन और गुर वतीके कमियों एवं श्रुटियोंको दूर करते हुए जीवनको शुद्ध एवं पुत्र थे । यह चितौलको छोड़कर अचलपुरमें लाए थे और सात्विक बनाना है। और द्रताचरण-उन्म पुण्य-फलको वहाँ ही इन्होंने वि. सं. १८४४ में धर्मपरीक्षाको पद्धडिया दिखानेका प्रयोजन यह है कि जनता अधिसे अधिक अपना चंदमें रचा था। इसमें मनोवंगकेद्वारा अनेक रोचक कथानको जीवन संयत और पवित्र बनावे, मादजनक, अनिष्ट, अनु तथा सैद्धान्तिक उपदेशों श्रादिसे पवनवेगकी द्वाको पसेव्य, अपघात और बहुघातस्प प्रभच्य वस्तुओंके व्यव- परिवर्तित कर जैनधर्ममें सुदृढ़ करनेका प्रयत्न किया गया है। वहारसे अपनेको निरंतर दूर रक्खे। ऐसा करनेसे ही मानव ग्रंथमें अपनेसे पूर्ववर्ती बनी हुई जयरामकी प्राकृत गाथाबद्ध अपने जीवनको सफल बना सकता है। इससे प्रकट है कि धमपरीक्षाका भी उल्लेख हुपा है जो अभी तक अप्राप्य है। जैन विद्वानोंका यह दृष्टिकोण कितना उच्च और लोको साथही, अपनेसे पूर्ववर्ती तीन महा कवियोंका-चतुर्मुख, पयोगी है। स्वयंभू श्रीर पुष्पदन्तका-भीप्रशंसात्मक समुल्लेख किया है। कथाग्रन्थ और ग्रन्थकार भविसयत्तकहा-सपलब्ध कथाग्रंथोंमें कविवर अब तक इस अपभ्रंश भाषामें दो कथाकेश, दो बड़ी धनपाल को भयिप्यदत्तपंचमी कथा ही सबसे प्राचीन मालूम कथा और उनतीस छोटी छोटी कथाएँ मेरे देखने में आई होती है। यह ग्रंथ २२ संधियोंमें पूर्ण हुआ है ग्रंथका हैं। पुराण और चरितग्रंथोंकी संख्या तो बहुत अधिक है कथाभाग बड़ा ही सुन्दर है। इस पंचमी प्रतके फत.की जिसपर फिर कभी प्रकाश डालनेका विचार है। इस समय निदर्शक कथाएँ कई विद्वान कवियोंने रची है जिनका तो प्रस्तुत कथाग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका ही संक्षिप्त परिचय परिचय फिर किसी स्वतंत्र लेख द्वारा करानेका विचार है। नीचे दिया जाता है: यह धनपाल धर्व नामके वैश्य वंश में उत्पन्न हुए थे। कथाकाश-अपभ्रंश भाषाका यह सबसे बड़ा कथा उनके पिताका नाम माएसर और माताका धनश्री देवी था। कोष है इसमें विविध तोंके प्राचरण द्वारा फल प्राप्त करने कविको सरस्वतीका वरदान प्राप्त था। यद्यपि कदिने प्रथमें वालोंकी कथाओंका रोचक ढंगस संकलन किया गया है। कहीं भी उसका रचनाकाल नहीं दिया, फिर भी यह ग्रंथ इसमें प्रायः वे ही कथाएँ.दी हुई हैं जिनका उदाहरणस्वरूप विक्रमकी दशमी शताब्दीका बतलाया जाता है। उल्लेख प्राचार्य शिवार्यकी भगवती पाराधनाकी गाथाओंमें पुरंदरविहाण कहा-इस कथाके कर्ता भट्टारक पाया जाता है। इससे इन कथाओंकी ऐतिहासिक तथ्यतामें अमरकीति है जिन्होंने गुजरात देशके 'महीयड' प्रदेश वर्ती कोई सन्देह नहीं रहता। प्रस्तुत कथाकं शके रचयिता मनि गौदह (गोध्रा) नामके नगरमें ऋषभजिन चैत्यालयमें श्रीचन्द्र हैं जो सहरूकीर्तिके प्रशिष्य और बीरचन्द्र के विक्रम संवत् १२४७ की भादों शुक्ला चतुर्दशी गुर वारके प्रथम शिष्य थे। यह ग्रन्थ तिरेपन संधियों में पूर्ण हश्रा दिन 'एटकर्मापदेश' की रचना की है। उस समय घालुक्य है। ग्रंथकी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि इसे कविने प्रण. वंशी वंदिगदेवके पुत्र कर्णका राज्य था। ग्रंथमें कदिने अपनेहिलपुरके प्राग्वट वंशी सजनके पुत्र और मूलराजनरेशके * विशेष परिचयके लिये देखो, 'श्रीचन्द्र नामके तीन विद्वान' गोष्ठिक कृष्णके लिये बनाया था। इनकी दूसरी कृति शीर्षक मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ७ किरण इ.१०।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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