SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८० अनेकान्त [ वर्ष ८ थे। सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रने लिखा है भयभीत थे। इसी लिये उन्होंने उक्त विषयमें चन्द्रकि जिनके चरणोंके प्रसादसे वीरनन्दि और प्रभका अनुसरण करना उचित समझा। इन्द्रनन्दि शिष्य संसार समुद्रसे पार होगये उन २ श्रीवादिराज सूरिन अपना पार्श्वनाथचरित अभयनन्दि गुरुको मैं नमस्कार करता हूँ। श० सं० ९४७ (वि० सं० १०८२) में समाप्त किया श्रीयुत प्रेमीजी ने इन अभयनन्दिके शिष्य था। उन्होंने उसके प्रारम्भमें अपनेसे पूर्वके कवियों वीरनन्दिको ही चन्द्रप्रभकाव्यका कर्ता सिद्ध किया का स्मरण करते हुए वीरनन्दिक चन्द्रप्रभकाव्यका है। तथा इन वीरनन्दिको नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती- भी स्मरण किया है। इससे स्पष्ट है कि वि० सं० ने गारूपसे भी स्मरण किया है। इससे सिद्ध है कि १०८२ तक वीरनन्दिक उक्त काव्यकी ख्याति होचकी चन्द्रप्रभके रचयिता वीरनन्दि जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ थी। तथा इससे इस बातकी भी पुष्टि होती है कि विद्वान थे। अतः वे अपने काव्यमें जैन सिद्धान्तका नामचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीक द्वारा स्मृत अभयनन्दिवर्णन करनेके लिये किसी दूसरे काव्यके वर्णनको के शिष्य वीरनन्दि ही चन्द्रप्रभकाव्यके रचयिता हैं देखें, इस बातकी स्वप्नमें भी आशा नहीं की क्योंकि चामुण्डरायने, जिसके लिये आचार्य नेमिचन्द्रजा सकती । ने गोम्मटसारकी रचना की थी, वि० सं० १०३५में दूसरी ओर धर्मशर्माभ्यदयके रचयिता महाकवि अपना चामुण्डरायपुराण ममाप्त किया था। अतः वीरनन्दिने विक्रमकी ११वीं शताब्दीक पूर्वाधमें या हरिचन्द्र ग्रन्थकी प्रशास्तम अपनेको कायस्थ बतलाते हैं और लिखते हैं कि हरिचन्द्र अपने भाई लक्ष्मण दसवीं शताब्दीके अन्तमें अपने काव्यकी रचना की की भक्ति और शक्तिसे वैसे ही शास्त्र-समुद्रके पार होगी। इस तरह चन्द्रप्रभकाव्यका समय सुनिश्चित होगये जैसे राम लक्ष्मणके द्वारा सेत पार होगये थे। हाजाता है। किन्तु धमशर्माभ्युदयका रचनाकाल अतः यह बहुत सम्भव है कि कायस्थ कुलजन्मा अभी तक भी सुनिश्चित नहीं होमका है। और अर्हन्त भगवानके चरण कमलोंके भ्रमर पं० अशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृतकी महाकवि हरिचन्दने इस भयसे कि जैन सिद्धान्तका टीकामें अनेक ग्रन्थकारों और ग्रन्थोंका उल्लेख किया वर्णन करनेमें कुछ त्रुटि न होजाये, अपने पूर्ववर्ती है तथा बहुतसे ग्रन्थोंसे उद्धरण दिये हैं। उनमें जैन महाकवि और सिद्धान्तशास्त्रके पारगामी वीरनन्दिके और जैनेतर अनेक कवियोंके काव्योंसे भी उद्धरण चन्द्रप्रभकाव्यका अनुसरण जैनधर्मके सिद्धान्तोंके लिये गये है। चन्द्रप्रभकाव्यसे (अ० श्लो० ) भी एक वर्णनमें किया है। उद्धरण लिया है। किन्तु धर्मशर्माभ्युदयका एक भी यह हम पहले ही लिख आये हैं कि काव्यकी उद्धरण खोजनेपर भी हमें नहीं मिल सका। इससे दृष्टिसे हमें चन्द्रप्रभका धर्मशर्माभ्युदयपर कोई ऋण ह " हमें लगता है कि धर्मशर्माभ्युदयको पं० आशाधरजीप्रतीत नहीं होता, क्योंकि महाकवि हरिचन्द माघ न ने नहीं देखा, अन्यथा उससे भी वे एक दो उद्धरण आदिकी टक्करके कवि हैं। किन्तु एक तो उनका अवश्य देते । और इमपरसे यह निष्कप निकाला जा कायस्थकुलमें जन्म लेना और दसरे अपनेको सकता है कि धर्मशाभ्युदय चन्द्रप्रभके बाद की 'अहत्पदाम्भोरुहचञ्चरीक' बतलाना यह सूचित रचना है। करता है कि वे जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ नहीं थे-ज्ञाता ३ चन्द्रप्रभकाव्यके अन्तिम सर्गके साथ अवश्य होंगे, किन्तु श्रद्धावश आगमकी विराधनासे धर्मशमाभ्युदयके अन्तिम सर्गका मिलान करते हए हम लिख आये हैं कि 'निर्जरा' पर्यन्त दोनों काव्योंमें १ कर्मकाण्ड गा० ४३६ । एक धारा प्रवाहित होती है । इसके बाद थोड़ा २ देखो, जैनसा० और इतिहास पृ० २६८ । अन्तर पड़ गया है । धर्मशर्माभ्युदयमें गृहस्थके बारह
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy