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________________ किरण १०-११ ] महाकवि हरिचन्दका समय पद्रव्याणीति वर्ण्यन्ते समं जीवेन तान्यपि । सारांश यह है कि दोनों सोंमें इतना अधिक विना कालेन तान्येव यान्ति पञ्चास्तिकायताम || साम्य है कि बिना एक दूसरेको देखे इतना साम्य आ नहीं सकता। इस तरह जब मुझे यह लगा कि कालो दिनकरादिनामुदयास्तक्रियात्मकः । दोनों कवियोंमेंसे किसी एकने दूसरेका काव्य देखा है औपचारिक एवासौ मुख्यकालस्य सूचकः ।।८९|| तो फिर मैंने प्रारम्भसे दोनोंको मिलाकर देखा । केवलिश्रतमंघाहद्धर्माणाविवेकतः । उससे भी मुझे कुछ बातोंमें साम्य प्रतीत हुआ। अवर्णवाद एवाद्यो दृष्टिमोहस्य संभवः ।।९८॥ १-दोनोंमें क्रमशः पहले, आठवें, मोलहवें कषायोदयतस्तीत्रपरिणामो मनम्विनाम । और चौबीसवें तीर्थङ्करको प्रारम्भमें नमस्कार किया चारित्रमोहनीयग्य कर्मणः कारणं परम् ॥१९॥ गया है । धर्मशर्माभ्युदयमें बीचमें धर्मनाथको भी नमस्कार किया है जो ग्रन्थका नायक होनेके कारण इत्येप बन्धतत्त्वस्य चतुर्धा वर्णितः क्रमः । उचित ही है। पदैः संहियते कैश्चित्मवरस्यापि डम्बर: ॥११६|| २-दोनों' ही अपने अपने चरितोंको दुरूह आस्रवाणामशेषाणां निरोध: मंवरः स्मृतः । बतलाकर अपनी शक्तिसे उसमें प्रवेश करनका उल्लेख कर्म संत्रियते यनेत्यन्वयम्यावलोकनान ॥१७॥ लगभग एक ही रूपमें करते हैं। ३-चन्द्रप्रभके दूसरे सगम राजाके प्रश्नके उत्तरमें मंवरो विवृतः मैष सम्प्रति प्रतिपाद्यते । मुनिके मुखसे चार्वाक आदि दर्शनोंका निरसन जर्जरीकृतकर्मायःपञ्जरा निजरा मया ॥१२शा कराया गया है जो दार्शनिकोंके ही योग्य है। धम निर्जरा पर्यन्त दोनों काव्योंमें एक धारा प्रवाहित शर्माभ्युदयकं भी चतुर्थ सर्गमें जब राजा दीक्षा लेनके होती है। इसके बाद थोड़ा अन्तर पड़ गया है। लिये तैयार होता है तो सुमन्त्र नामका मन्त्री चार्वाक धर्मशर्माभ्युदयमें गृहस्थके बारह व्रतोंका वणन भी दर्शनका पक्ष लेकर आत्माका श्राभाव बतलाता है किया गया है जो चन्द्रप्रभमें नहीं है। उसके बाद राजा उसका समाधान करता है। १०, १२ श्लोकोंमें फिर दोनों में एक धारा प्रवाहित होने लगी है । दोनों ही यह चर्चा यहाँ समाप्त होजाती है। में एक ही रूपमें भगवानके उपदेशकी समापिकं बाद पूरा मिलान करनेपर और भी साम्य मिल विहारका वर्णन है । यथा सकता है। परन्तु कवित्वकी दृष्टिसे एकका दूसरेपर इति तत्त्वोपदेशेन प्रह्लाद्य सकलां सभाम । कोई ऋण प्रतीत नहीं होता। दोनों ही अपने अपने भव्यपुण्यसमाकृष्णा व्यहरद्भगवान्भुवि ॥१३२।।चन्द्र० रूपमें स्वतन्त्र प्रतीत होते हैं। अब प्रश्न यह है कि किसने किसको देखा है ? इति तत्त्वप्रकाशेन निःशेषामपि तां सभाम । __ अब तकके अवगाहनसे तो मैं इसी निर्णयपर प्रभुः प्रह्लादयामास विवास्वनिव पद्मिनीम् ॥१६६।। पहुँचा हूँ कि धर्मशाभ्युदयकारने चन्द्रप्रभकाव्य अथ पुण्यैः समाकृष्टोमव्यानां निम्पृहः प्रभुः । अवश्य देखा है। और उसमें निम्न उपपत्तियाँ हैंदेशे देशे तमश्छेनु व्यचरद्भानुमानिव ।।१६७॥ धर्म १ जैन साहित्यके ज्ञाताओंसे यह बात छिपी नहीं विहारके वर्णन के बाद दोनोंमें एक ही से शब्दोंमें है कि चन्द्रप्रभकाव्यकं र यताका नाम वीरनन्दि है। अपने अपने तीर्थडगेंके गणधर वगैरहकी संख्या इन्होंन इस काव्यकी प्रशस्तिमें लिखा है कि मेरे गमबतलाई है। दोनोंमें अन्तर केवल संख्याका है। का नाम अभयनन्दि था, जो देशीयगगाके श्राचार्य उसके बाद दोनों में सम्मेदाचलपर पधारनेका और १ देग्यो, चन्द्रप्रभ० श्लो० ६, १० और धर्मशा० श्लो. वहाँसे मुक्तिलाभ करनेका वर्णन है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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