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________________ ४५४ अनेकान्त [ वर्ष ८ मिलना कठिन होगया। थे। गुणभद्रने उन्हें तमाम वादियोंको त्रस्त करने प्राचार्य धरसेनके हम अत्यन्त कृतज्ञ रहेंगे वाला और उनके शरीरको ज्ञान और चारित्र्यकी जिन्होंने पूर्व ग्रन्थांके अवशिष्ट भागोंको एकत्र कर एक सामग्रीसे बना हश्रा बतलाया है। जिनसेन द्वितीयने नवीन ग्रन्थकी धारा प्रवर्तित की जो मध्ययुगम टीका उन्हें कविचक्रवर्ती कहा है। इन्होंने तीन ग्रन्थोंकी और भाष्यांसे संलित होकर वृद्धिंगत होती गयी। रचना की थी, जिनमेंके दो ग्रन्थ आज उपलब्ध है। इन्हीं ग्रन्थोंका वर्णन यहाँ क्रमसे किया जाता है। इनमें प्रथम यही धवला टीका है तथा दूसरी १ षटखण्डागम-आचार्य धरसेनका निवास जयधवला है। गिरनार पर्वतपर था । इनका स्थितिकाल वीनिर्वाण २ धवला टीका-इम ग्रन्थमें मल अगमोंके संवत् ६८३(?) है । इनके दो प्रधान शिप्य हुये आरम्भिक पाँच खण्डोंकी ही विस्तृत तथा विशालजिनका नाम पुष्पदन्त और भनलि था। पूर्वकि काय व्याख्या है । इस ग्रन्थकी समाप्ति शक संवत अन्तगत “महाकर्मप्रकृति" नामक एक पाहुड (प्राभृत) ७३८ (८१६ ई०) में हुई थी। उस समय कर्णाटकक था जिसमें कति, वेदना, आदि २४ अधिकार अथवा राप्रकूट वंशी नरेश जगत्तुङ्गादेव (गोविन्द तृतीय) ने खण्ड थे । पुष्पदन्त और भूतबालन आचार्य धरसेन राज्यांसहामन छोड़ दिया था और उनके पुत्र क निकट इस पाहडका अनशीलन किया तथा अमाघवप राज्यसिंहासनपर विराजमान थे। इस आरम्भके ६ अधिकारों या खण्डोंपर सूत्ररूपमें प्रकार धवलाकी रचना नवम शताब्दीकं प्रारम्भ रचना की। ६ खण्डोंमें विभक्त होनेके कारण ही इस काल में हुई । टीकाकं धक्ला कहे जानेका कारण यह ग्रन्थका नाम · पटवण्डागम" है । इन ६हां खण्डों- जान पड़ना है कि जिस राप्रकूट नरश अमाधवपक के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं: समयमें यह पुस्तक लिखी गई थी उनकी उपाधि (१) जीवम्थान (२) क्षुद्रकबन्ध (३) बन्ध- 'अतिशय धवला' थी । सम्भवत: इमी उपाधिक स्वामित्व (४) वंदना (५) वर्गणा और (६) महाबन्ध। कारण इम टीकाका नाम धवला रक्या गया है। इस आगमकी रचनाका काल विक्रमकी पहली धवलाका अथ है विशुद्ध । अतः अतिशय विशुद्ध नथा शताब्दी है। ये आगम ग्रन्थ कर्म तथा जीव मिद्धान्त- मृलग्रन्थक विशुद्ध प्रतिपादनक कारण इस टीकाका के विपय मामिक विवेचना करते हैं। इनके ऊपर ऐसा नामकरण होना उचित ही है। अनेक टाकायं इनके मारगभित अर्थको प्रकट करने ३ महाधवला पटखण्डागमक अन्तिम खण्ड लिये प्राचीन कालमें ही लिखी गई थीं । परन्तु मवसे का नाम है महाबन्ध । इसकी रचना भूतबलि विस्तृत, प्रामाणिक तथा उपयोगी टीका जी उपलब्ध स्वामीन की थी। वीरसेन स्वामीने लिखा है कि हई है उसका नाम है 'धवला' । विस्तार तथा स्वयं मूललेखक भूतबलिने महाबन्धको इतने विस्तार प्रामाण्यके कारण यह ग्रन्थ नहीं विराट् ग्रन्थराज के साथ लिखा है कि इसके ऊपर टीका लिखनकी कहा जा सकता है । इसके रचयिता हैं आचाय कोई आवश्यकता ही नहीं थी। वीरसेनम्वामी, जो अपने समयमें जैन आगमके सामान्यतया यह ममझा जाता है कि धवला बहुत बड़े विशेषज्ञ थे। उन्होंने अपनको सिद्धान्त. तथा जयधवलाके समान महाधवला भी एक टीकाछन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण शास्त्रोंमें १ अठतीसम्हि सतमए, विक्कमरायं किए सु-सगणामे । निपुण कहा है । जिनसेनने उन्हें वादिमुख्य, वाम सुतरसीए. भाणुविलग्गे धवलपक्ग्ये ॥ लोकवित्, वाग्मी और कविकं अतिरिक्त श्रुतकेवली ___इस धवला टीकाका सम्पादन अमगवतीमे डाक्टर तुल्य भी बतलाया है। सिद्धान्त-ममद्रकं जलमें धोई। हीरालाल जैनने किया है। इसके तीन खण्ड आठ हुई अपनी शुद्ध बुद्धिस वे प्रत्येकबुद्धीस स्पर्धा करते जिल्दोंमें प्रकाशित होचुके हैं ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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