SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण १] महावीर-उपदेशावतार तो उमीने किया था उसीकी बनवाई समवशरण मभामें समस्त तस्वोंका मुचम विवेचन कैसे होगया यह बात तो असंख्य जनराशि एकत्र हुई थी। श्रागन्तुक जनताको लाभ जान बूझकर संकल्प के कारण ही हो सकती है, कोई भी पहुँचवानका प्रधान उत्तरदायित्व तो उपीका था किन्तु बान वक्ता निरिच्छुक रूपमे ठीक बाख्यान नहीं दे सकता" ? उपके वशकीन थी वह विवश (लाचार) था। यह श का स्वयं हल हो जाती है जब.क हम यह उसने अपनी अवधि-ज्ञानशक्ति भगवानके मीन- देखते हैं । बाणीका ज्ञानसे गहरा सकी । जिस अवलम्बनका कारण जानना चाहा कि भाखर कौन सी ज्ञानश्रेणीका व्यक्ति होता है उसको आकस्मिक वायी भी कमी रह गई है जिससे मेरा प्रयत्न मन नहीं हो रहा? उमी ढंगकी निकलती है । विद्वान स्वादश में भी यद तब उसे ज्ञात हश्रा कि यहां और ना सब कुछ- बड़बड़ावेगा तो उसके मुख से निकले हुए शब्द मुर्व मनुष्य कन्तु कुछ भी नहीं है। उपदेश सुनने वाले असख्य के शब्दोंसे भिन्न तरह के होंगे उनमें भी विद्वत्ताकी झलक प्रागी भी यहां एकत्र है किन्तु प्रधान श्रोता यहां एक भी होगी। यदि कोई डाक्टर (विशेषज) शराबके नशे में बढ़नहीं है। प्रचंड वाग्धाराको महन करने वाली प्रयत्न ज्ञान- बदावे तो उसे अनुद्दिष्ट इच्छाक अभावमें निकली हई धारिणी चट्टान यहां पर नहीं। अत: दिव्य उपदेशको पूर्ण वचनावली में भी विशेषज्ञता या उक्टरीकी गंध पाई धारण कर आगे उसे फैलाने वाला महान व्यक्ति जब तक जायगी। यही बात भगवानकी दिव्यध्वनिक विषयमें यहां न हो तब तक भगवानका मौन-भंग भी कपोंकर हो। समाधान कर देती है। सिंहनीक दृषके लिये स्वर्णपात्र चाहिये। अत: गणधर चूकि वे भर्वज्ञ थे इतना ही नहीं किन्तु अनंन शकि(अहन्तके दिव्य, महान ग न उपदेशको सुनकर अपने सम्पन्न, पूर्ण निरजन, पूर्ण निराकुल भी थे जनसाधारण हृदय पटल पर लिव लेने वाला अनुपम विद्वान की कमी की अपेक्षा उनमें अनुपम विशेषाएं विद्यमान थीं-वे ही इस मौनका प्रधान कारखा है। लोकोत्तर हो चुके थे। अत: इच्छा न रहते हुए भी उनकी तब इन्द्र उस समय सबसे बड़े विद्वान इन्द्रभति वाग्धारामें सर्वजनाकी झलक थी जैसा वे निरावरण, गौतमको एक युक्तिये समवशरणमें लाया। भगवानका पूर्ण ज्ञानम जानत थ उनक वन पूर्ण ज्ञानम जानते थे उनके वनन भी वैमा हा प्रांतपाइन दर्शन कर इन्द्रभूति गौतम निरभिमानी होकर भगवानका करते थे। यदि एक वैद्य अपनी स्वमदशा बोलता भक्त बन गया। उपदेशको श्रवण कर, उप धारण कर हा वना इराकी वाणी में भी किसी गगका ठीक निदान लेने वाला प्रधानपान श्रागया, भगवानका मौन स्वयं भंग और चिकिया बतला देता है तो सदा जाप्रत सर्वज्ञानाकी हुश्रा, उपदेशधारा भगवानके मुम्खये बह चली। जिम निरिच्छ वाणी सर्वज्ञताकी छाप कैग नावेगी ? प्रकार बुद्धिमान भव्य शिष्यके प्राजानेपर विद्धन गुरुके जगतमें बहुत अधकचरे मनुष्य विना यथेष्ट जान हरयमसे विद्याका स्रोत मुखद्वारमे स्वयं निकल पड़ता किये उपदेशकका चोगा पहन लेते हैं और अपने अधूर, या वत्मक निकट भाजानेपर गायका दृध स्वयं टपकने अपक्व ज्ञानस जनताको तथा अपने पापको पथभ्रष्ट करते लगता। तीर्थकर प्रकृतिको भी बाहरी साधन उपलब्ध है । परन्तु श्रीवीर प्रभुने जब नक स्वय पूर्ण ज्ञान और हा और भगवानकी दिव्य ध्यान बिना किसी इच्छाके प्रारिमक पूर्ण शुद्धिको प्राप्त न कर लिया तब तक माधु भी उपदेश होने लगा। अवस्थामें १२ वर्ष तक किमीको कुछ उपदेश न दया । ___ भगवान के दिव्य उपदेश प्रारंभ होने का वह प्रथम अपना सुधार किये विना दुसरेके लिये लम्बे लेक्चर झाड़ने शुभ दिवस श्रावण वदी प्रतिपदा था। इस प्रकार अन्त वाले व्याख्यानदाताओंको भगवान महावीरके इस श्रादशम होजाने पर भी ६६ दिन तक गणधरके असद्भावमें भगवान उपयोगी शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है। महावीरकान रहा। __'योहा बोलो अधिक काम करो' यह बात तो भगवान "इच्छाके अभाव में भी भगवान महावीरके उपदेशमें जकी जीवनचर्यामे पद पदपर टपकती है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy