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________________ चित्तौड़के जैनकीर्तिम्तंभका निर्माणकाल एवं निर्माता (ले०-- श्री अगर चन्द नाहटा, सिलहट ) मेवारके प्राचीन दुर्ग चित्तौड़गढ़ पटनममाजका बहुत मूर्तियों का भी पता नहीं। जिन रामप्रसाद नरवीर एवं सती प्राचीन एवं घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। श्वेताम्बर ऐतिहासिक बियें निवास करती थीं, पहरेदार भीतर जानसे रोके रहते संबंधोंमें इसके उत्पसिकी कथा पाई जाती.' एवं ७ वीं थे भाज वहाँ बिना रोकटोकके भीर जाते भी भयका शताब्दीके सुप्रसिद्ध जैन विद्वान सिद्धसेन दिवाकरम्म पूर्व भी संचार होता है । यहांकी सुंदर अट्टालिकामोंकी दुदशा देख चित्तौड़ये जैनसमाजका अच्छा सम्बन्ध था प्रमाणित होता कर कोन सहृदय व्यक्रि दोमांसू बहाये बिना रह सकेगा? है। महान् समदर्शी श्री हरिभद्रमूरिजी (८ वीं शताब्दी) श्वेत म्बर जैनमनियोंकि कतिपय प्रन्योंमे यहांके जैनभी यहींके थे। १२ वीं शताब्दीमें यहां चैत्यवामका जबर- मंदिरों एव श्रावको प्रादिके सम्बन्ध में बहुत कुछ ज्ञातव्य दस्त प्रचार था जिसका विरोध खरतरगच्छाचार्य जिन- प्राप्त होता है। जयम' रविगजेन्द्र" के रचित चित्तौड़ वल्लभसूरिजीने किया था, भापक भक, श्रावक साधारण- चैत्यपरिपाटी द्वयके अनुसार यहां ३२ जिनालय थे जिनमें शाहने यहां महावीरस्वामीका विधि चैत्यालय बनवाया हजारपेअधिक जैनमूनिय प्रतिष्ठित थीं। चित्रकूट महाथा। सूरिजीके प्रभावसे यहां की चामुण्डादेवी प्रापकी भक्त वीर प्रमाद प्रशस्ति से वार प्रामादके निर्माता गुणराज एवं होगई थीं। सं. ११६७ में श्रापका प्राचार्य महोत्सव भी प्रतिष्ठायक प्राचार्यके इतिहास माथ और भी कई महत्व यहीं हुमा था और विधिचैयालयमें श्रापके रचित संघ की बातोपर प्रकाश पड़ता है। शत्रं जयके १६ व उद्धार के पट्टकादि ग्रन्थ शिलापट्ट पर उत्कीर्ण किये गये थे । भापके उद्धारक कर्माशाह भी यहींके निवासी थे और उन्होंने पट्टधर प्रगट प्रभावी श्राजिनदत्तमूरिजीका महोरमय भी यहाँ पाय एवं सपार्श्वके दो मंदिर भी बनवाय' थे। चैग्य(सं० ११६१ में) इसी महावीर मंदिरमें हुआ था। १६ वीं परिपाटीके अनुसार यहां श्वेताम्बर मरदायके १ खरतर शताब्दी तक यहांका मित.। अधिकाधिक चमकता रहा। २ तपा ३ अचल ४ मलधारी नायावाल ६ पल्लीवास यद्यपि १४ वीं शताब्दीमें अलाउद्दीन खिलजीने इसमें व्याघात चित्राकाल एवं पूर्णिमागच्छक पृथक पृथक जिनालय उत्पम किया था पर उसका प्रभाव अधिक समय तक नहीं थे। दिगम्बर समाजका भी यहां अछा प्रभाव ज्ञान होता रहा। १७ वीं शताब्दी सम्राट अकबर द्वारा विध्वंस होने है। जिनकीनिम्तंभ हमी समाजके एक श्रावकका महत्वपूर्ण पश्चत चितौड अपने पूर्व गौरवको पुनः प्राप्त करने में कार्य एवं चैयपरिपाटीक अनुसार यहां एक पार्श्वनाथ समर्थ न होमका आज भी हमके गौरव के ध्वं पावशेष स्वामीका दि. मंदिर भी था, जिसमें १०. जैनप्रतिमाएँ जगह जगह बिखरे पड़े हैं। यहांके जिन मनोरम मंदिनोंमें ४ प्रकाशित 'जनयुग' वर्ष ३ पृ० ५४ । भक्तजन भगवद् उपासना कर शांतिनाम करते थे, जिन ५ मूलप्रति एलपपुग्भंडार है, प्रतिलिपि हमारे संग्रह में है। मंदिरोंके घंटादेवसे एकवार दुर्ग शब्दायमान हो उठता था। ६ मूलप्रति भाडारकर औरियन्टल रिसर्च इन्स्टचट में है। पान वे देवालय सूने पड़े हैं भकोंकी तो बात ही क्या प्रतिलिपिदमारे संग्रह है। मन १६०८ में डा. देवधर १ देवें पुरातनप्रबन्धसंग्रह में चित्रकृटोत्यंत प्रबंध । भाडारकग्ने इमे प्रकाशित भी की थी। २ देखें -सुमति गणि रचित गगाधर साधंज्ञातक वृहद् वृति ७ जैनगुर्जर कविश्री भा० १ पृ० १४५ में इन दोनों मंदिगे (मं० ११६५) की प्रतिष्ठा विवेकमंडन गणिनेका लिम्बा है। ३ पन्द्रहवीं मोनवीं शताब्दीम है। यहाँ कीर्तिस्तंभ एवं अनेक ८ शीतलप्रसाद जीने अपने मध्य प्रान्त एवं राजपूताने के जैनमंदिरं बने अतः पुनः उत्कर्ष ही हुआ, कह सकते हैं। स्मारक ग्रंथके पृ० १३८ में अष्टापदावतार शांतिनाथ
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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