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________________ किरण १२ ] रत्नकरण्डक-टीकाकार प्रभाचंद्रका समय ४६९ रचयिताकी कृति है। इसी प्रकारके उल्लेग्व समाधि- आहारिणः इत्यभ्युपगमात्-पृ० ८५६)। द्वितीय तन्त्रकी टीका और शब्दाम्भोजभास्करमें भी पाये विकल्पे तु त्रिदशादिभिर्व्यभिचारः तेषां कवलाहाराजाते हैं। जिन्हें न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने भावेऽपि देहस्थितिसंभवात।' –न्यायकु० पृ० ८५७ प्रमेयकमलमात्तण्डकारकी ही कृतियाँ सिद्ध की तथा हि। भगवतो देहस्थितिराहारपविका देहहै । इमसे भी यह टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड कारकी स्थितित्वात अस्मदादिदेहस्थितिवत् । जैनेनोच्यतेज्ञात होती है। अत्र किमाहारमात्रं साध्यते कवलाहारो वा ? प्रथम३ टीकामें यत्र तत्र शैली और तकका प्रायः उसी पक्षे सिद्धमाधनता आसयोगकलिन आहारिणो प्रकारसे आश्रय लिया गया है जिस प्रकार प्रमेय- जीवा इत्यागमाभ्युपगमात् । द्वितीयपक्षे तु देवदेहकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदमें दृष्टिगोचर होता है। स्थित्या व्यभिचारः । देवानां सर्वदा कवलाहाराअन्तर सिर्फ इतना ही है कि वे दोनों यहाँ ग्रन्थानुरूप भावेऽपि अस्याः संभवात् ।'-रत्नकरण्डटीका पृ०५ और अतिसंक्षिप है। नमुनके तौरपर दोनांक तीन इन अवतरणोंसे जाना जाता है कि यह टीका प्रमेयउद्धरण नीचे दिये जाते कमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके र यता प्रभा(क) अविघ्नेन शास्त्रपरिसमाप्त्यदिकं हि फल- चन्दाचार्यकी बनाई हुई है-रत्नकीर्तिके पट्टशिष्य मुद्दिश्यष्टदेवतानमस्कारं कुर्वाणाः शाप्रकृतः शास्त्रादी प्रभाचन्दकी, जिनका समय वि० की १३वीं, १४वीं प्रतीयन्ते । -प्रमेयः पृ०७ शताब्दी बतलाया जाता है, बनाई हुई नहीं है। यह निविघ्ननः शाम्रपरिसमाप्त्यादिक फलमभिलष- स्मरण रहे कि रत्नकीर्तिके पट्टशिष्य प्रभाचन्द्रका निष्टदेवताविशेष नमस्कुर्वन्नाह ।'- रत्नकरण्डटी. पृ२ पूर्वाल्लिम्वित पट्टारोहणसमय (वि०म० १३१० ) (ख) 'नन व्याप्तिप्रतीत्यर्थ तकलक्षणप्रमाणाभ्यु- अभ्रान्त नहीं मालूम होता; क्योंकि इन प्रभाचन्द्रके पगमोऽनुपपन्नः, प्रत्यक्षतोऽनुमानता वा तस्याः प्रतीति- एक शिष्य ब्रह्मनाथूरामने वि० सं० १४१६में सिद्धेः इत्याशङ्का निराकुर्वन्नाह ।' --न्यायकु. पृ. ४२६ 'आराधनापञ्जिका' की लिपि कराई थी' और इमसे ननु सम्यग्दर्शनस्याष्टभिरङ्गः प्रपितैः किं प्रयो इन प्रभाचन्द्रका समय १४वीं शताब्दीका उत्तराध जनम् ?, तद्विकलस्याप्यस्य समारोच्छेदनसामर्थ्य ज्ञात होता है। और इसं लिये पं० आशाधरजीकी मंभवात, इत्याशंक्याह ।' - रत्नकरण्डटीका पृ० २४ सागारधर्मामृतटीका (वि० सं० १२९६)से बहुत पूर्व (ग) 'तथा हि-"भगवती देहस्थिति: आहार रची गई इस रत्नकरण्डक-टीकाके र यता ये प्रभापृविका देहस्तित्वात् अम्मदादि दहस्थितिवत" चन्द्र कदापि सम्भव नहीं हैं। इत्यत्र प्रयोगे किम् आहारमात्रपूर्वकत्व तत्स्थित: ४ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने 'प्रवचनमारप्रमाध्येत, कवलाहारपूर्वकत्वं वा ? प्रथमपक्षे 'सिद्ध सरोजभास्कर' को भी प्रमेयकमलमात्तण्डकारकी ही साध्यता' इत्युक्तम् (आ सयोगकेलिनो जीवा रचना सिद्ध किया है । इस ग्रन्थकी और रत्नकरण्ड१ वे उल्लेख ये है: टीकाकी प्रारम्भिक उत्थानिकाएँ समाधितन्त्रटीकाकी 'यैः पुनर्योगमाख्येमुक्ती तत्पच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता तरह बिल्कुल एकसी है । यथाते प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्र च मोक्षविचारे 'श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः मकललोकोपकारकं मोक्षविस्तरतः प्रत्याख्याताः।' –समाधितंत्रटीका पृ० १५ मार्गमध्ययनरुचिविनेयाशयवशेनोपदर्शयितुकामो नि'तदात्मकत्वञ्च र्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलपन्निष्टसिद्धयति तथा पमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रं च परूपितमिह दृष्टव्यम् ।' -शब्दाम्भोजभास्कर १ देखो, जैन साहित्य और इतिहास पृ० ३२। २ देखो न्यायकुमुद नि० भा० की प्रस्तावना । २ देखो, न्यायकुमुद द्वि० भा० पस्तावना पृ० ६३-६४ ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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