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________________ हमारी यह दुर्दशा क्यों ? [सम्पादकीय ] एक समय था जब यह भारतवर्ष स्व मन्त्र था. अन्य परन्तु ग्वेद ! अाज भारत वह भारत नहीं है। आज देशोंका गुरु बना हुश्रा था, सब प्रकारसे समृद्ध था और भारतवर्षका मुख समुज्ज्वल होने के स्थानमें मलिन तथा स्वर्गके पमान समझा जाता था। यहोपर हजारों वर्ष नीचा है ! श्राज वही भारत परतन्त्रताकी बेड़ियों में जकडा पहले से श्राकाशगामिनी विद्याके जानकार, दिव्य विमानों हुअा है और दूसरों का मुंह ताकता है ! श्राज भारतका द्वारा अाकाशमार्गको अवगाहन करने वाले, वैक्रियक श्रादि समस्त विज्ञान और वैभव स्वप्नका साम्राज्य दिखाई ऋद्विक धारक और अपने प्रात्मबलमे भूत, भविष्य पड़ता है ! और श्राज उसी भारतवर्ष में हमारे नारों तरफ तथा वर्तमान तीनों कात्रीका दाज प्रत्यक्ष जानने वाले प्रायः ऐस ही मनुष्योंकी मृष्टि नजर आती है जिनके चेहरे विद्यमान थे। भारत की कीनिजता दशों दिशाओं में व्याप्त पीले पड़ गये हैं. १२.१३ वर्षको अवस्थाही जिनके केश थी। उपका विज्ञान, कला कौशन और प्रारमज्ञान अन्य रूपा होने प्रारम्भ होगये हैं, जिनकी श्राख और गाल बैठ समस्त देशों के लिये अनुकरणीय था। उसमें जिधर देखो गये हैं; मुंहपर जिनके हवाई उडनी है; हटापर हरदम उधर प्राय: ऐसे ही मनुष्योंका सद्भाव पाया जाता था जो जिनके खुश्की रहती है, थोडासा बोलने पर मुग्व और कण्ठ जन्मपे ही दृढाग नीरोगी और बलान्य थे. स्वमावसे ही जिनका सूख जाता है। हाथ और पैगंक सलुश्राम जिनक जो तेजस्व), मनस्वी और पराक्रमी थे, रूप और लावर यमें अग्नि निकलती है जिनके पैरों में जान नहीं और घुटनों में जो सोंके देव-देवानाप्रोंये स्पर्धा करते थे. सर्वाङ्गसन्दर दम नहीं, जो लाठोके महारसे चलते है और ऐनकके और सुकुमारशरीर होनेपर भी वीर-रसमे जिनका अङ्ग अङ्ग पहारेसे देखते हैं, जिनके कभी पेट में दर्द है ना कभी सिरमें फडकना था, जिनकी वीरता, धीरता और दृढ प्रतिज्ञताकी चक्कर: कभी जिनका कान भारी है तो कभी नाक, पालम्य देव भी प्रशंसा किया करते थे, जो कायरता भीरुता और जिनको दबाये रहता है। माहस जिनके पास नहीं फटकता, पालस्यको घृणाकी दृष्टिसे देखा करते थे. श्रारमबलमे वीरता जिनको स्वनमें भी दर्शन नहीं देती: जो स्वयं जिनका चेहरा दमकता था. उपाह जिनके रोम रोममे अपनी छायाप श्राप डरते हैं, जिनका तेज नष्ट होगया है: स्फुरायमान था, चिन्ताओंमें जो अपना प्रात्म-समर्पण जो इन्द्रियोंका विजय नहीं जानने, विषय-वनके लिये जो करना नहीं जानते थे. जन्मभरमं शायद ही कभी जिनको अत्यन्त प्रातुर रहते हैं परन्तु बहुत कुछ स्त्री प्रमंग करनेपर रोगका दर्शन होता हो, जो पदैव अपने धर्म-कर्ममें तत्पर भी संभाग-सुखका वास्तविक प्रानन्द जिनको प्राप्त नहीं पीर पापोंमे भयभीत थे, जिनको पद पदपर मचे माधु प्रों होता, प्रमेहम जिनका शरीर जर्जर है। श्वहारी दवाओं का मत्सत और पदुपदेश प्राप्य था, जो तनिका निमित्त की परीक्षा करते करते जिनका चित्त घबरा उठा है। हकीमों पाकर एकदम समस्त पापारिक प्रपोंको स्यागकर वनो- वद्यों और डाक्टरोंकी दवाई खाने खाते जिनका पेट वापको अपना लेते थे और प्रारमध्यानमें ऐसे तल्लीन हो- अस्पताल और औषधालय बन गया है, परन्तु फिर भी जाते थे कि अनेक उपसर्ग तथा परीषदोंके मानेपर भी जिनको चैन नहीं पड़ता, जिनके विचार शिथिल है. जो चलायमान नहीं होते थे, जो अपने हित-अहितका विचार अपने प्रारमाको नहीं पहचानने और अपना हित नहीं करनेमें चतुर तथा कन्ना-विज्ञान में प्रवीण थे और जो एक जानते; स्वार्थने जिनको अन्धा बना रखा है। परम्परक दूपरेका उपकार करते हुए परस्पर प्रीति-पूर्वक रहा करते थे। ईर्षा और द्वेषने जिनको पागल बना दिया है. विज्ञानसे
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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