SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० अनेकान्त [ वर्ष धर्मको वास्तविक रूपमें पालन करने वाले का कमा भा प्रबल प्रचारने जैनधर्मको भार। श्राघात पहुंचाया, उसकी किमी दूसरे धर्मसे अथवा उसके अनुयायियोम विष नहीं प्रगति रुक गई और हाम हाने लगा. मनपारवर्तनके कारण हो सकता । जब कभी ऐसा विष होता है तो वह अपने जैनियों की संख्या भी न्यून होती चली गई । अस्तु । धर्मकी वास्तविकताको भुला देने वाले कुछ एक मतलब १४वीं शताब्द। ईस्वीम, विजयनगर राज्यकी स्थापना खोके कारण ही होता है। और यदि जनसाधागा अथना के समय जैनौकी स्थिति गौण हो चला थो । विजयनगर विविध धमों और समाजोंके नेता चाहें तो ममन्त धार्मिक नरेश सायं हिन्दुधर्मानुयायी थे । तथापि उनके साम्राज्यम विद्वेष एवं साम्प्रदायिक द्वन्द्रो (झगडों) का अन्न महज दी मंग्या समाद्ध शक्ति और विस्तारको अपेक्षा सर्वाधिक हो सकता है और परस्पर सद्भाव तथा सौहार्द्र स्थापित होना महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समाज जैन समाज हा या । अत: कुछ भी कठिन नहीं। इसके अतिरिक्त यदि विद्यमान राज्य- विजयनगर नरेशोंकी धार्मिक नीति हिन्दु-जैन प्रश्नको लक्ष्य सत्ता ही इस बात का प्रयत्न करे तो वह भी सरलतामे इस में रखकर निश्चित एवं निर्मित हुई थी, उसका उद्देश्य कार्य में सफल हो सकती है। इन दोनों धोके बीच एक प्रकारका समन्वय-सा करते गज्यसत्ता-द्वारा हम प्रकारकी एक महत्वपूर्ण हुए उनके श्रनु गथियों में पार पूर्ण मेत्री एवं सद्भाव सफलता का ज्वलंत उदाहरण भारतवर्ष के मध्यकालीन स्थापित करके गट की नावको सुदृढ़ करना था। इस विषय इतिहाममें मिलता है । यह घटना विजयनगर गज्यके में उन्होंने निष्पक्षता, न्यायपरता नथा सहिष्णुतासे काम प्रारंभिक काल की है। विजयनगर साम्राज्यकी उत्तात्त, लिया। उनकी इस नीतिका पारेरणाम भी गजा जा दोनों उत्कर्ष और पतन मध्ययुगीन भारतको महत्वपूर्ण एवं के ही लिये अति ह कर एवं सुखद सिद्ध हुश्रा। आश्चर्यजनक घटनाएं हैं । मन् १३४६ ई० में दक्षिणम विजयनगर राज्यकी ववेकपूर्ण धार्मिक नीतका विजयनगर के हिन्दु-साम्राज्यकी स्थापना हुई थी। यह वद प्राभास विजय-गरके प्रथम सम्राट हरिहररायके समयसे समय था जब एक और योग्य एवं समर्थ नेताओंके प्रभाव ही मिलना शुरु होजाता है। सन् १३६३ ई० में तहत्तालमें तथा नवोदित शैव वैष्णव आदि हिन्दु सम्प्रदायोक स्थित प्राचीन पार्श्वनाथ वस्तीकी मिल्कियत भूमिकी सीमा प्रबल प्रचार के कारगा भारतीय इतिहासमें जैनियोंके के सम्बंधम जैनों और हिन्दुओंके बीच झगड़ा हुआ। स्वर्णयुगका अन्त हो रहा था, और दूसरी ओर विदेश। सम्राट के पुत्र विरूपाक्ष उम प्रान्त के शासक थे। उन्होंने दोनो अाक्रमणकारी मुमलमान देश की स्वतन्त्रताका अपहरण दलोक नेताअोंको बुलाकर पूर्ण निष्पक्षता और न्यायके साथ कर रहे थे। उत्तरी भारतमें तो उनका स्थायी माम्राज्य उक्त विवादका निपटारा कर दिया। स्थापित हो ही गया था, दक्षिण भारतमें भी वे प्रवेश करने किन्तु सबसे अधिक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध अन्त: लगे थे। इस बात का श्रेय विजयनगर राज्यको ही है कि साम्प्रदायिक निर्णय मन् १३६८ ई.में सम्राट बुक्कारायने उसने लगभग दो मौ वर्ष तक दक्षिण भारत को मुसलमानों दिया था। उसी सन्के एक शिलाभिलेख से पता चलता द्वारा पराभूत होने से बचाये रक्त्वा । और विजयनगर राज्य हे कि जनियों और श्रीवैष्णवोंके बीच एक भाग विवाद की शक्ति और सुदृढ़ताका एक प्रधान कारण उसके राजा उपस्थित हो गया था। साम्राज्य के समस्त लि। और और शासकोंकी पार्मिक नीति था जिसका मूलाधार पूर्ण नगरोंके जैनौने सम्राट बुक्कागय के सम्मुग्व एक सम्मिलत अन्तर्धार्मिक सहिष्णुता था। प्रार्थनापत्र पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि ईस्वी सन्के प्रारंभसे ही ईमाकी लगभग ११वी १२वीं वैष्णव लोग उनके साथ बहुत अन्याय कर रहे हैं। सम्राट शतान्दी तक, विशेष कर दक्षिण भारत में, जैनोंका पूर्ण ने तुरन्त तत्परता के साथ मामले की जाँच की और अपने प्राधान्य था, किन्तु उसके पश्चात् श्रीवैष्णव, वीरशैव दर्वार में दोनों ममा जो के समस्त मुखियाओं को इकट्ठा होने अथवा जंगम श्रादि सम्प्रदायों की उत्पत्ति और उनके (१) E.C VIII Te.197p..206-207. नयनार, अलवार, लिंगायत आदि नेताओंके विद्वेष पूर्ण (२)E.C.II 334,p.146-147: IX.18.p.53-54
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy