SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ अनेकान्त वर्ष क्षुधा, तृषाकी बाधा शीत-उष्णकी बाधा प्रादि दुख-सुख पूर्वका उपलब्ध नहीं है, तथा उपका प्राप्तमीमांयाके साथ खगे हुए हैं वे भी मायुकर्मके साथ तक चलने वाले वेद- एक कर्तृत्व बतलाने वाला कोई भी सुप्राचीन उल्लेख नहीं मीयकर्मके भाधीन होनेस अनिवार्य हैं। यह बात कारिका नहीं पाया जाता। १३ में वीतराग केवलीमें सुखदुखकी बाधा के निर्देशसे (३) रत्नकरणका सर्वप्रथम उल्लेख शक है ४७ में स्वीकार करली गई है। वादिराजकृत पार्श्वनाथ चरिनमें पाया जाता है। किन्तु माप्तमीमांपाकारका यह मत है और वह पर्वथा जैन. यहां वह स्वामी समन्तभद्र कृत न कहा जाकर लोगीन्द्र' सिद्धान्त सम्मत है। प्रकलक विद्यानन्दि आदि टीकाकार कृत कहा गया है एवं उसका उल्लेख स्वामीकृत दे । म जहां तक हम मर्यादाओंके भीतर अर्थका स्पष्ट करण करते (प्राप्तमीमांसा) और देवकृत शब्दशास्त्र सम्बधी पद्य के हैं वहाँ तक तो वह सर्वथा निरापद है किन्तु यदि वे कहीं पश्व त पाया जाता है, प्राप्तमीमावासाके साय नहीं। प्राप्तमीमांसाकार के निर्देशसे बाहर व कर्मसिद्धान्तकी सुम्पष्ट देवकृत शब्दशास्त्र हरिवंशपुराण व आदिपुगण आदि व्यवस्थानोंके विपरीत प्रनिपादन करते पाये जाते हों तो ग्रंथोंक अनुसार देवनन्दि पूज्यपाद कृत जैनेन्द्र व्याकरणाका हमें मानना ही पड़ेगा कि वे एक दूसरी ही विचारधारासे ही अभिप्राय सिद्ध होता है और उसके व्यवधानस रत्नप्रभावित हैं जिसका पूर्णत. समीकरण उक्त व्यवस्थ ओंसे करण्ड प्राप्तमीमांसाकार कृत कभी स्वीकार नहीं किया महीं होता। जा सकता। १०-उपसंहार (४) रत्नकाण्डके उपान्त्य श्लोकमें जो बीना लंक' इस पूर्वोक्त समस्त विवेचनसे जो वस्तुस्थिति हमारे विद्या' और 'सर्वार्थमिद्धि' पद पाये हैं उनमें 'अब लंक' सन्मुख उपस्थित होती है वह संक्षेपत: निम्न प्रकार है- 'विद्यानन्दि' और 'सर्वार्थमिद्धि टीकाका उल्लेख श्लेष (१) रनकरण्ड श्रावकाचारमें प्राप्तका जो चस्पिपा- रूपये किया गया प्रतीत होता है। बिना ऐसी कोई सादिक अभावरूप लक्षण किया गया है वह प्राप्तमीमांसा. विवक्षाके उक्त पदोंका और विशेषत: सत् या सम्यकके म्तर्गत 'दोषावरणयोहनिः' श्रादि प्राप्तके रक्षणसे मेल नहीं लिये 'वीतलंक' पदका ग्रहण किया जाना अस्वाभाविक साता, तथा पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःख त्' प्रादि १३ वीं दिखाई देता है। कारिकासं सर्वथाविरुद्ध पड़ता है, एवं उसकी संगति कर्म- इन प्रमाणाम नकर राहकार पूज्यपाद, अकलं देव सिद्धान्त की व्यवस्थाओंसे भी नहीं बैठनी जिनक अनुपार व विद्यानन्द प्राचार्योंके पश्चात् हुए पाये जाते हैं केवखीके भी वेदनीय कर्मजन्य वेदनायें होती हैं। एव उनका प्राप्तमीमाके कर्तास एकाव सिद्ध (२) रत्नकरण्डका कोई उल्लेख शक संवत १४७ से नहीं होता। आध्यात्मिक पद अब हम अमर भये न मरेंगे। तन कारण मिध्याव दियो तज, क्यों कर देह परेंगे। उपजे मरै काल से प्राणी, तात काल हरेंगे। राग दोष जग बन्ध करत हैं, इनको नाश करेंगे॥ देह विनाशी मैं अविनाशी, भेदज्ञान पकरेंगे। नासी जासी हम थिरवासी, चोखे हो निखरेंगे। मरे अनन्तवार बिन समझे अब सब दुख बिसरेंगे। मानत निपट निकट दो अक्षर, विन सुमरै सुमरेंगे॥ -ले० कविवर यानतराय कर कर भातमहित रे प्रानी। जिन पग्निामनि बंध होत है, सो परनति तज दुखद्वानी ।। कौन पुरुष तुम कहाँ रहन हो, किहिको संगती रति मानी। जे पर जाय प्रगट पुद्गलमय, ते तें क्यों अपनी जानी ।। चेतन-जोति झलक तुममा, अनुपम सो से विसरानी। जाकी पटतर लगत अान नर्षि, दीप रतन शशि सूरानी ।। प्रारमें आप लखो अपनो पद, धानत कर तन मन-वानी। परमेश्वर पद आप पाइये, यौं भाषै केवल ज्ञानी ।।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy