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________________ ३८८ अनेकान्त [ वर्ष ८ हाथमें लेना चाहिये जो सभी सम्प्रदायोंमें थोड़े (पृष्ठ ३८२ का शेषांश) बहत रूपमें पाये जाते हैं। उनके ऊपर देशका बहत के बाद हुआ था । अतएव योगशास्त्र विक्रम बड़ा ऋण है, जिसे उनको इस प्रकारकी सेवाओं- संवत १२८७ से लेकर १२२९ तकके बीचके किसी द्वारा अब चुकाना चाहिये । इस समय उनकी समयमें रचा गया है। सेवाओंकी खास ज़रूरत है, जिससे धर्माधि-गुरुओं यदि योगशास्त्रको वि० सं० १२१७की रचना मान और बहके हुए स्वार्थपरायण मौलवी-मुल्लाओं के लिया जाये तो उसमें और धर्मशर्माभ्युदयकी उक्त गलत प्रचारसे व्याप्त हुए विषको देशकी रगोंसे प्रतिके समयमें ७० वर्षका अन्तर ठहरता है । इतने निकाला जासके। उन्हें वर्तमानमें आत्म-साधनाको भी समयमें योगशास्त्रकी ख्यातिका होना, महाकवि गौण करके लोकसेवाके मैदानमें उतर आना चाहिये, हरिचन्दके सामने उसका पहुँचना और धर्मशर्मामहात्मा गांधीकी तरह सच्चे दिलसे निर्भय होकर भ्युदयकी प्रतिका होना श्रादि कार्य सम्पन्न हो सकते अपेक्षित सेवाकार्यों में प्रवृत्त होजाना चाहिये और यह हैं। हमारे मतसे इसी समयमें महाकवि हरिचन्द हुए ममझ लेना चाहिये कि देशका वातावरण शान्त हुए हैं। उनका जन्म वि० सं० १२०० के लगभग हुआ बिना वे आत्म-साधना तोक्या, कोई भी धर्मसाधनका होगा । जब आशाधर मारवाड़म भागकर मालवामें कार्य नहीं कर सकेंगे। अपनी सेवाओं द्वारा वे लोक आये उसी समयके लगभग उन्होंने अपना धर्मशर्माके धर्मसाधनमें तथा आजकलकी हवाम सच्चे भ्युदय रचा होगा। यही वजह है जो अशाधरके धर्मस च्युत हुए प्राणियोंको मन्मामार्ग दिखानेमें ग्रन्थों में उसका एक भी उद्धरण नहीं मिलता, किन्तु बहुत कुछ सहायक हो सकेंगे। और इस लिये यह आशाधरके धर्मामृतका पान करनेवाले कवि उनका इस समय सर्वोपरि कर्तव्य है । यदि ऐमे अहंदास के पुरुदेवचम्पूपर धर्मशर्माभ्युदयकी गहरी कर्तव्यपरायण सत्साधुओंकी टोलियाँकी टोलियाँ छाप पद-पदपर मिलती है देशमें घूमने लगें तो देशका दूपित वातावरण शीघ्र पाटणके भण्डारमें धर्मशर्माभ्युदयकी १२८७ की ही शुद्ध तथा स्वच्छ हो सकता है । आशा है प्रतिका पाया जाना भी स्थितिपर बहुत प्रकाश सत्साधुओंका ध्यान जरूर इस ओर जायगा और वे डालता है। यदि उस प्रतिको देखा जाये तो सम्भव अपने वतमान कतव्यको समझकर नेताओंको है उससे और भी प्रकाश पड़ सके । सम्भव है वही अपना वास्तविक महयोग प्रदान करनेमें कोई बात प्रति आद्य प्रति हो और महाकवि गुजरातके आमठा नहीं रक्खेंगे। पासके रहने वाले हों। पाटण उस समय गुजरातकी राजधानी थी और राजा कुमारपाल उसमें राज्य वीरसेवा मन्दिर, सरमावा करता था। आचार्य हेमचन्द्र भी वहीं रहते थे। योगशास्त्र भी सम्भवतः वहीं रचा गया था जिसे महाकवि हरिचन्दने देखा था। संशोधनकी सूचना-गत किरणमें युगवीरजी (मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी) की एक संस्कृत कविता 'जैनादश (जैनगुण-दर्पण)' नामसे मुद्रित हुई है, उसमें निम्न पद्य छूट गया है अतः पाठक उसे ८वें पद्य के बाद अपनी २ प्रतिमें बढ़ा लेवें और तदनुसार अगले पद्योंके क्रमाङ्क भी क्रमशः १८, ११ बना लेवें। साथ ही, तीसरे पद्यमें 'सशीलो' के स्थानपर 'कृतज्ञो', शान्ति' के स्थानपर 'शील' और सातवें पद्यमें 'जैनोनीति' की जगह 'जैनः शान्ति' बना लेनेकी भी कृपा करें। परीपहोपसर्गाणां विजेता धीर-सत्तमः । अप्रमादी सदा जैनः सत्संकल्पे दृढो महान् ।।५।। -व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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