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________________ किरण १] हरिषेण कृत अपभ्रंश-धर्म-परीक्षा रचनामें कहीं भी उतने विस्तारके साथ उन्हें दिया है। सालंकार कविताके नमूने हैं, जबकि हरिषेणके वही वर्णन हरिषेणने पाठवें मगके कतिपय करावकोंमें रामचरितके पुष्पदन्त सरीखे अपभ्रंश कवियों के प्रभावसे प्रभावित हैं। सम्बन्धमें कुछ जैनशास्त्रानुसारी कथाएं लिखी हैं। लेकिन इसलिए नगर प्रादिक चित्रण में हमें कोई भी सरश भाव. पमितगति इन कथाओं को बिलकुल उदा गए हैं इसी पूर्ण विचार और शब्द दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। प्रकार हरिषेणाने ११ वें सर्गमें अपने सिद्धांताप अनुरंजित यद्यपि मधविन्द-दृष्टान्तके वर्णनमें कुछ विभिन्न रानि-भोजन-विरमणके सम्बन्धमें जो एक विशेष कथा प्रकार अंगीकार किया गया है। फिर भी उसके विवरण दी थी वह भी उन्होंने कुछ सद्धान्तिक निरूपणक साथ मिलते जलते विलकुल उड़ा दी है, किन्तु प्राचारशास्त्र के अन्य नियमों यदि उनका परंपरागत सिद्धान्तोंमे समन्वय न किया पर उन्हीं प्रकरणों में सबसे अधिक उपदेशपूर्ण विवेचन जाय तो यह संभव है कि कुछ प्रकरणोंमेसे एक-सी किया है। लेकिन इधर-उधरके कुछ इस प्रकार के प्रकरणों उक्तियां खोज निकाली जाय:को छोड़कर अमितगतिकी रचनासे कुछ ऐसे पद्योंका निर्देश (१) हरिषेण १, १६:किया जा सकता है जो हरिषेणके कडाव को बहुत कुछ त अवराह खम दरह। मिजते जुलते हैं। हरिषेणने अपने ग्रन्धका जो ग्यारह तो हपिउणं महवेएणं । संधियों में विभाजन किया है इसकी अपेक्षा अमितगतिका भणियो मित्तो तं परधुत्तो । अपनी रचनाको २२ सों में विभक्त करना अधिक माया-णेहिय अप्पाणं हिय । अम्वामाविक है। जहांतक कथानककी घटनाबों और उनक (1) अमितगति ३, ३६-७कमका सम्बन्ध है। दोनों की रचनाओं में बहुत समानता है। यस्यां धर्ममिव त्यक्त्वा तत्र भद्र चिरं स्थितः । विचार एकसे हैं और उन्हें उपस्थित करनेके तरीके में भी चमतम्यं ममाशेष दुविनीतस्य तया ॥ प्रायः अन्तर नहीं है । नैतिक नियमों, लोकबुद्धि से पूर्ण उक्तं पवनवेगेन हसिवा शुद्धचेतमा। हिनकर उपदेशों तथा सारगर्मित विवेचनों निरूपण में को धूतॊ भुयने धृतवन्च्यते न वशंवदैः ॥ अमितगति विशेषरूपमे मिळूहम्त हैं। भोग-विलास तथा सांसारिक प्रलोभनोंकी निंदा करने में वे अधिक वाक्पटु हैं। (२) हरिषेण २, ५ग्रहस्थ और मनियों के लिए जैन आचारशास्त्रके नियमा इय दुण्णि वि दुग्गय-तणाय-तणां गिरहेविगु लक्कर-भागमणं । नुमार जीवन के प्रधान लक्ष्यको प्रतिपादन करने का कोई भी अवसर वे हाथमे नहीं जाने देते। यहांतक कि नीरस, भाइय गुरु पर विवि मए सैद्धांतिक विवेचनों को भी वे धारावाहिक शैली में सजा व यउ ण उ जायए वायमए। देते हैं। इस प्रकारके प्रकरणों के प्रसङ्गमें हरिषेणकी धर्म (२) अमितगति ३.८५परीक्षाकी अपेक्षा अमितगतिकी रचनामें हमें अधिक विस्तार तं जगाद खचराङ्गजस्ततो देखने को मिलता है। यद्यपि दोनोंका कथानक एक-सा है भद्र निधनशीरभूरहम् । फिर भी सैद्धान्तिक और धार्मिक विवेचनोंक विस्तारमें भागतोऽस्मि तृण काष्टविक्रय कर्तुमत्र नगरे गरीयसिअन्तर है। अमितगतिके वर्णन उच्चकोटिक संस्कृत-कलाकारों की [क्रमश:]
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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