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किरण १०-११ ]
तेरह काठिया
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सुह असुहं ण वियप्पहि चित्तं धीरे वि ते जए वरुणा। को लेक्खइ सत्त्थम्में दुज्जीह दुजणं पि असुहयरं । परकज्जे परकव्वं विहडंतं जेहिं उद्धरियं ॥४|| मुवणं सुद्ध सहावं करमउलि रइवि पच्छामि ॥६॥ अमियमयंदगुरूणं आएसं लहे वि झत्तिइय कव्वं । जंकिंपिहीण अहियं विउसासोहंतु तं पि इय कव्वे। णियमइणा णिम्मवियं णंदउ ससीदिणमणी जाम ॥धिट्त्तणेण रइयं खमंतु सव्व पि मह गुरुणो ||७||
इय पज्जुरणचरिय सम्मत्त ।
तेरह काठिया
लेखक-बा. ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए.]
या बालम शोक भय कथा कौतक कोट ।
अनेकान्तकी गत किरण ६-७ पृ० २८७ पर की एक कविता दी हुई है, जिसका प्रारम्भ इस विद्वद्वर्य सम्पादक जीने, उन्हें प्राप्त एक प्राचीन प्रकार हुआ है:गुटकेमें स्फुटरूपसे उल्लेखित तीन पद्योंके आधारसे, जे वटपारै वाटमें, करहिं उपद्रव जोर । तत्कालीन भट्टारकोंकी तेरह पन्थ शुद्धाम्नायके प्रति विदेश
तिन्हें देश गुजरातमें, कहहिं काठिया चोर ॥१॥ विद्वेष पूर्ण एवं घृणित मनोवृत्तिका अच्छा दिग्दर्शन कराया है। उक्त पद्योंमेंसे पद्य न० २ में 'काठया'
त्यों यह तेरह काठिया, करहिं धर्मकी हानि । शब्द आया है। वह पद्य इस प्रकार है
तातें कुछ इनकी कथा, कहहुँ विशेष बखानि ॥२॥ "त्रिदश १३ पन्थरतौ निशिवासराः
जूना अ गुरुविवेक न जानति निप्टुराः
कृपगबुद्धि अज्ञानता, भ्रम निद्रा मद मोह ॥३॥ जपतपे कुरुते बहु निप्फलां
इससे आगे १ से १६ तक, १३ चौपाइयों में किमपि येव जना सम काठया"॥ इन तेरहों काठियांका स्वरूप वर्णन किया गया है इसका स्पष्ट अर्थ है कि-'ये (तेरह पन्थी लोग) और अन्तमें १७वें पद्य (दाह)रातदिन तेरह पन्थमें रत रहते हैं, ये निष्ठुर गुरु 'ये ही तेरह करम ठग, लेहिं रतन त्रय छीन । विवेक-गुरुका आदर मानादि करना नहीं जानते, यात संसारी दशा. कहिये तेरह तीन' ॥ इनके किये जप तप सब निष्फल हैं, और ये लोग
में कविताका उपसंहार किया गया है । इसके मानो काठिया ही हैं ।' श्रद्धेय मुख्तार साहिबने
- उपरांत 'इति त्रयोदश काठिया' लिखकर कथनकी 'काठिया' का अर्थ धर्मकी हानि करने वाला किया है.
___ समाप्ति की है। इस कवितासे स्पष्ट विदित होता है सो ठीक ही है। किन्तु इस शब्दका और इसके इस
कि 'काठिया' शब्द गुजराती भाषाका है जिसके स्थानमें पद्यके रचयिता द्वारा प्रयुक्त होनेका वास्तविक
अर्थ बटमार, लुटेरे अथवा चोरकं हैं और जिसका रहस्य अभी हाल में ही बनारसी-विलासका अव
उपयोग इस कविताके रचियता विद्वद्वर्य पण्डित लोकन करते हुए स्पष्ट हुआ । उक्त ग्रंथ' के पृ० १६१
बनारसीदासजीन अलङ्कारिक रूपमें किया है अर्थात पर 'अथ तेरह काठिया लिख्यते' शीर्षकसे १७ पद्यों
जिस प्रकार काठिया लोग राहचलतोंके धन सर्वस्व १ बनारसी विलास-जैनग्रंथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई। का अपहरण कर लेते हैं उसी प्रकार ये जुआ.