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अनेकान्त
[वर्ष ८
है। एक अनन्तकीर्ति नामके विद्वानाचार्य और उनकी उससे प्रतीत होता है कि वे अकसके इतने बाद हुए। 'स्वत: प्रामाण्यम' नामकी कृति के भी उल्लेख हैं।' कि वे प्रकलङ्कके 'स्वामिनः' पदका वास्तविक अर्थ करने में प्राचार्य नहीं कि ये अनन्तकीर्ति वे ही अनन्तकीर्ति हों सन्दिग्ध थे-उसका वे असन्दिग्ध अर्थ नहीं जानते थे जिनका उल्लेख वादिराजने पार्श्वनाथचरितमें किया है और इसखिये 'भाचार्य प्रसिद्धि प्राधारपर उसका अर्थ
और जिन्होंने जीवमिद्धि, लघु और वृहद सर्वज्ञसिद्धियोंकी 'मीमन्धर भट्रारक तीर्थकर' करने के लिये बाध्य हुए । रचना की है । जीवसिद्धिकी तरह उनकी यह सिद्धि- जो प्राचार्य उस पदका अर्थ भाचार्य-प्रसिद्धिके अनुसार विनिश्चयटीका उल्लिखित 'स्वतःप्रामाण्यभङ्ग' कृति मी 'पात्रकेशरी स्वामी' करते थे उसका उन्होंने विरोध अनुपलब्ध जान पाती है। इन सबके उल्लेख होते हुए किया। यदि अनन्तवीर्य कमाके १००.५० वर्ष बाद भी विद्यानन्दका या उनके प्रन्यवाक्यका कोई उल्लेख ही हुए होते तो वे उस ऐतिहासिक पदके अर्थ में इतने नहीं है। उधर विद्यानन्द ने भी इनका कोई उल्लेख किसी भी सन्दिग्ध न होते और जो 'पात्रकेशरीस्वामी' अर्थ किया ! अन्य में नहीं किया। प्रतएव यह सम्मव है कि ये दोनों जाता था उसे वे बिना ननु नच किये अवश्य स्वीकार विद्वान समकालान हो श्रीर भिन्न भिन्न क्षेत्रोंमें अपना करते । अतएव उनकी इस चर्चासे यह जान पड़ता कि प्रकाश कर रहे हो। विद्यानन्दका समय । वीं शताब्दी वे अकलकूके बहुत वाद हुण्हैं जबकि 'स्वामिन' पदके अनुमानित किया जाता है। धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, अर्थमें अनेक किम्बदन्तियां और मतभेद प्रचलित होचुके कागोमी, पर्च, तस्वीपक्लवकार (जयराशि), कुमारिख थे, अतएव यह चिम्तनीय है कि वे वीं शताब्दीके
और प्रभाकर ये सब साकी ७ वीं शताब्दीतकके विद्वान है? राहलसांस्कृत्यायनने ४ अर्चटका समय ८वीं विधान है। प्रकलदेवका समय प्रायः पाठवीं शताब्दी और कर्णकगोमीका वीं सदी दिया है और अनन्तवीर्यने अनमानित और अनन्तवीर्य उनके व्याख्याकार हैं। मर्चट तथा कर्णकगोमी दोनोंका सभालोचन किया। इसलिये इनका समय ।वी और १०वीं शताब्दी मालून' चत: अधिक सम्भव यही है कि ये १०वीं मदीके विद्वान होता है। यदि इन्हें अकलङ्क प्राय व्याख्याकार होनेका हैं। फिर एक प्रश्न यह जरूर बना रहता है कि विद्यानन्द सौभाग्य भी प्राप्तीतो ये वीं श०केही विद्वान् । (हवीं सदी) का उन्होंने कोई उल्लेख क्यों नहीं किया?
जोकि बहुत अधिक सम्मन था। अत: यह विचारणीय है। लेकिन इस समयको मानने में एक विचारणीय बात यह उपस्थित होती कि अनन्तबीयंने सिद्धिविनिश्चयके अकलङ्कके व्याख्याकारोंमें अनन्तवीर्यका स्थान'हेतुलसण-सिद्धि' नामके छठे प्रस्तापके भारम्भमें प्रकल. प्रकलङ्कका वाङ्मय-पदवाक्यादि समूह--कितना, देवके 'स्वामिनः' पदको लेकर जो चर्चा प्रस्तुत की गहन, दुध संक्षिप्त और अर्थबहुल है इसका पता इसके
___.. न्याय-विषयक प्रकरणोंका मध्ययन करनेवालोंको सहजमें १ 'अनन्तकीतिकृते:स्वतःप्रामाण्यभङ्गादवसेयमेत'-४प्र. मालूम होजाता है। प्राचार्य वादिराज पद पदपर इसका २ देखो, पार्श्वना. १-२४ ।
अनुभव करते हैं और अनन्तवीर्यकी सहायता लेकर ही
उन्हें समझ पाते हैं। भाच र्य प्रभाचन्द्र जब सैकडों बार ३ 'कस्य तदित्याह-स्वामिनः पात्रकेशरिण इत्येके । कुत एतत् ? तेन तद्विषयविलक्षणकदर्थनमुत्ताभाष्यं यतः
अभ्यास करते हैं तब उन्हें जान पाते है, सो अनन्तवीर्यरी
प्रकरुप्य सहायतासे ही। बगैर इनकता लिये कृतमिति चेत्, नत्वेवं सीमन्धरभट्टारकस्याशेषार्थसाक्षाकारिणस्तीर्थकरस्य स्यात् । तेन हि प्रथमं 'अन्यथानुप- मवगम्यत इति समानम् । प्राचार्यप्रसिद्धरित्यपि समानपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र मुभयत्र । कथा च महती सुप्रसिद्धा...'-पृ.८६३ । तत्र त्रयेण किम् ॥” इत्येतत्कृतम् । कथमिदमवगम्यते ? ४ भारतीयविद्या वर्ष ३ अंक १ 'प्रज्ञाकरगुप्त और उनका इति चेत् , पात्रकेशरिणा त्रिलक्षगाकदर्थनं कृतमिति कथ- भाष्य' शीर्षक लेख ।