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________________ अनेकान्त (वर्ष ८ थे. गौ-माता को अपना जीवनाधार समझते थे और दूध प्रबन्ध न किया और कुछ दिनों और यही हालत चलती न देने का रोगी हो जाने प्रादि किसी कारण पर उनको रही को याद रहे दो एक वर्ष में ही वह समय भी निकट कभ अपने से अलग नहीं करते थे, और यदि अजग करने मानायगा जब दवाई के लिये भी खालिस (शुद्ध) घी दूध की जरूरत ही या पदती थी तो किसी ऐसे भद्र मनुष्यको का मिलना दुर्लभ हो जायगा और हम लोगोंकी और भी समर्पण करने थे जो अपने प भी अधिक प्रेमकं माथ उनको वह दुर्दशा होगा कि जिममे हमारी त फ कोई प्रांख उठा रखने और उनकी प्रतिपालना करने वाला हो। परिणाम कर देखना भी पसन्द नहीं करेगा और हम सब प्रकारसे इसका यह होना था कि गौएँ कपाइयोंक हाथमें नहीं हीन तथा नाण्य समझे जावेंगे। यदि हम भारतवासी जाती थीं घर घरमें घी-दृद्ध की नदियां बहती थीं और सब सचमुच ही इन उपयुंक.) समस्त दुःखों भोर दुर्दशामोंसे नाग श्रानन्दक माथ अपना जीवन पतीत करते थे। तथा छुटकारा चाहते हैं और हममें अपने हित अहितका कुछ भी हृष्ट-पुट बने रहते थे। पान प्राजकन हम लोग मे प्रमादी विचार अवशेष है तो हमें उक्त चारों प्रकारकी निबलताको अथवा जैन्ट नमैन हो गये है कि हमने गौओंका पालन दूर करने का शीघ्रसे शीघ्र प्रयत्न करना चाहिये । ज्यों ही करना बिल्कुल छाब दिया हमें प्राणोंक प्राधा भूत गौत्रों हम इस निर्बजताको दूर करने में सफल होंगेश्यों ही हमें का रखना ही भार मालूम होता है और हम यह कहकर फिरसे इस भारतवर्षमें भीम, अर्जुन महावीर. बुद्ध, रामही अपना जी ठण्डा करलेते हैं कि "गाय न बच्छी नींद रावणादि जैसे वीर पुरुषों के दर्शन होने लगेंगे और हम सब श्राव अाही!" मीका यह फल है कि प्रतिदिन हजारों प्रकारसे अपने मनोरथों को सिद्ध करने में समर्थ हो सकेंगे। गौमांक गलेपर दरी फिरती है, घो दृध इदमे ज्यादह महेंगा * यह लेख अाजसे कोई ३६ वर्ष पहले लिग्वा गया था हो गया और हम लोग शरीरमे कमजोर, कमहिम्मत तथा और देवबन्द जि. महारनपुर में प्रकट होने वाले 'काम और देवचन्द जि. महारन अनेक प्रकार गगोंके शिकार बने रहते हैं !! ऐपीअवस्थामें धेनु' नामक मामा हक पत्रक ३० सितम्बर सन् १६१० हमलोग कैप अपनी उन्ननि या अपने समाज और देशका के अंक में प्रकाशित हुआ था। उस समय घीका भाव सुधार कर सकते हैं ? कदापि नहीं। रुपयेका १० छटोंक और दद्धका तीन पाने मेरका था। श्रा: 5म भारतवामियों को गहुन शीघ्र इस ओर श्राजकी स्थिति उमसे भी अधिक ग्बगब एवं भयंकर है, ध्यान देकर ऐपा प्रबन्ध करना चहिये कि जिममे बहुलता और इसलिये ऐसे लेखकि मर्वत्र प्रचारकी बड़ी जरूरत और दलिय से लेखोर fe केश उत्तम घी-दूध की प्राति होती रहे. और उसके लिये है। यही मब मोच कर आज इसे कुछ आवश्यक परिमबप अच्छा उपाय यही है कि पय लोग पहलेकी तरह वर्तनों तथा परिवर्धनोके साथ अनेकान्त-पाठकोंके सामने श्राने घगेपर दो दो चार चार गाएँ तथा भैंमें रक्षा करें स्क्वा गया है। उस समय घी-धका ही गेना था, अाज और कदापि उनको किमी ऐसे अविश्वसनीय मनुष्यके तो देशमें अन्न तथा दूसरे ग्वाद्य पदार्थों का भी संकट हाथ न बे नियम उनके मारे जाने की संभावना होवे। उपस्थित है ! पिछले साल मनुष्यकृत काल के कारण माही. उनके लिये अच्छी चरागाहों का प्रबन्ध करें और खाद्य सामग्री के न मिलने से बंगाल के करीब ३५ लाख गोवा-भूमि छबिना हर एक अपना कर्तव्य समझे, जिससे मनुष्य कालके गाल में चले गये !! और श्राज सारे चारे-घामका कोई कष्ट न रहे और वे प्रायः जगजमे ही। भारतपर उसी प्रकार के अकाल के काले बादल मँडग रहे अपना पेट भर कर घर पाया करें। इसके अलावा स्थान । हैं !!! ऐमा स्थितिमं हमें बहन ही सतर्क तथा सावधान म्यानपर। मुरव स्थत और विश्वम्त डायरी फार्मोंका। होना चाहिये और स्वावलम्बनको अपनाकर सामूहिक भी प्रबन्ध होना चाहिये, जिमम पाचन विहीनीको समय प्रयत्नद्वारा उम दोषपूर्ण परिस्थितिको ही बदल देना पर उचित दामोंमें यथेष्टरूपसे शुद्ध घी दूध मिल जाया करे। चाहिये जिमने हमारी यह सब दुर्दशा कर रक्खी है और यदि हमने शीघ्र ही इस भीर ध्यान न देकर कुछ भी करने को तत्पर है। --सम्पादक
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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