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________________ ३७४ अनेकान्त १७५५ - उदयपुर में दिन के वक्त श्याल ( गीदड़ ) बोला । १७५८ - फागुन में एक अजीब ( ' डंगडियाला ' ) तारा उदित हुआ । १७६२ (१) — चैत्र में शाम के वक्त तारा सबल पड़ा । fro [ वर्ष ८ १७६३ - महाराजा श्रजितसिंह जालौर में गद्दी पर बैठा । 'अनेकान्त' की गत ८- ९वीं संयुक्त किरण में हमने उक्त शीर्षक के साथ एक खोजपूर्ण लेख लिखा था, जिसमें अनेक आधार- प्रमाणों और सङ्गतियोंसे यह सिद्ध किया था कि 'परीक्षामुखकार आचार्य माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र परस्पर साक्षात गुरुशिष्य थे । अतएव उनका समय विक्रम संवत् १०५० वि० सं० १९९० ( ई० सन् ९९३ से ई० १०५३) अनुमानित होता है ।" प्राचार्य माणिक्यनन्दिके समयपर ग्रभिनव प्रकाश [ परिशिष्ट ] मेरे इस मतसे सहमति प्रकट करते हुए श्रीन् भाई प्रो० दलसुखजी मालवणिया जैनदर्शनाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय बनारसने मुझे हाल में पत्र लिखा है । साथमें मेरे उक्त मतका समर्थक एक प्रमाण भी भेजा है । उनका वह पत्र निम्न प्रकार है 'अनेकान्तके अन्तिम में आपने आचार्य प्रभाचन्द्रको आचार्य माणिक्यनन्दिके शिष्यरूपसे बताया है वह ठीक ही हैं । उसके समर्थन में मैं आपको एक और भी प्रमाण देता हूँ । मार्त्तण्ड में ३ - ११ सूत्रकी व्याख्या ( नई आवृत्ति पृ० ३४८ पं० २२ ) में प्रभाचन्द्रने लिखा है “इत्यभिप्रायो गुरूणाम् ।" इसमे अब शङ्का न रहना चाहिए ।' प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ३-११ सूत्रकी व्याख्या गत पूरा उद्धरण इस प्रकार है १७६४ - आज़मका पुत्र दीदारबख्श काम आया ( मारा गया)। आलिमशाह गद्दी पर बैठा । " न च बालावस्थायां निश्चयानिश्चयाभ्यां प्रतिपन्नसाध्यसाधनस्वरूपस्य पुनवृद्धावस्थायां तद्विस्मृतौ तत्स्वरूपोपलम्भेऽप्यविनाभावप्रतिपत्तेरभावात्तयोस्तदहेतुत्वम्; स्मरणादेरपि तद्धं तुत्वात् । भूयां निश्चयानिश्चयौ हि स्मर्यमाण्प्रत्यभिज्ञायमानौ तत्कारणमिति स्मरणादेरपि तन्निमित्तत्वप्रसिद्धिः । मूलकारणत्वेन तूपलम्भादेरत्रोपदेशः, स्मरणादेस्तु प्रकृतत्वादेव तत्कारणत्वप्रसिद्ध ेरनुपदेश इत्यभिप्रायेो गुरूणाम" यहाँ शङ्का की गई है कि स्मरण आदि भी व्याप्तिज्ञानमें कारण होते हैं उनका सूत्रमें उपदेश क्यों नहीं है ? उसका समाधान यह किया गया है। कि प्रधान कारण होनेसे उपलम्भादिकका तो सूत्र में उपदेश है किन्तु स्मरणादिकका प्रकरण होनेसे ही उनकी कारणता सिद्ध होजाती है और इसलिये उनका सूत्रमें अनुपदेश है उपदेश नहीं है, ऐसा अभिप्राय गुरुका है । यद्यपि जैन साहित्य में परम्परा गुरुके लिये भी 'गुरु' शब्दका प्रयोग किया गया है, परन्तु यहाँ ग्रन्थारम्भमें, ग्रन्थकी प्रशस्ति में और मध्य में जो बारबार तथा विशिष्ट शैली से प्रभाचन्द्रने माणिक्यनन्दिके लिये 'गुरु' शब्दका प्रयोग किया है वह साक्षात् गुरुके लिये ही स्पष्ट प्रतीत होता है । मैं उक्त प्रमाण के लिये प्रो० सा० का आभारी हूँ । आशा है अन्य विद्वान भी इसपर विचार करेंगे। - दरबारीलाल जैन, कोठिया ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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