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________________ संस्कृत “कर्मप्रकृति' [सम्पादकीय ] अनेकान्तके पाठक और प्रायः दूसरे विद्वान भी इस ग्रन्थकी आदिमें और अन्तमें मङ्गलात्मक अभी तक अधिकांशम उस प्राकृत कर्मप्रकृनि ग्रन्थसे दो पदा है और वे क्रमशः इस प्रकार हैंही परिचित रहे हैं जो नामचन्द्रकी कृतिरूपसे प्रसिद्ध प्रतीगगाऽऽ है, १६० गाथात्मक मंग्रहग्रन्थ है और जिमकी चर्चा अनकान्तके तीमा वर्षकी किरणों (८ से १२) में, अनन्तानन्त-धी-दृष्टि-मुख-वीर्यात्मने नमः ॥१॥ गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति-विपयको लेकर, जयन्ति विधुताऽशेष-पापाञ्जनसमुच्चयाः । महीनों तक हाती रही है तथा जिसका विशेप ऊहा- अनन्तानन्त-धी-दृष्टि-मुग्व-वीर्या जिनेश्वराः ॥१॥ पोहक माथ आलोचनात्मक परिचय मरे 'गाम्मटसार इन दोनों पद्योंको छोडकर शेष मारा ग्रन्थ और नेमिचन्द्र' नामक निबन्ध में-'प्रकृतिसमुत्कीतन गद्यात्मक है और श्लोक-परिमाणसे ग्रन्थकी संख्या और कर्मप्रकृति' उपशीपकके नीचे दिया गया है, जो ३०० श्रीकांसे कम नहीं है क्योकि मतपत्रात्मकप्रति अनेकान्न (वप ८) की गत किरगा ८ ९ में प्रकाशित जो अपने सामने है उसमें पहला प्रत तो खाली है, हा है। आज अपने पाठकों को एक दुसरं कर्म शेष १३ पृष्ठोमम ५ पर प्रति पृष्ठ १५.७ पर प्रति पृष्ठ प्रकृति ग्रन्थका परिचय कराता हैं, जो संस्कृत भाषाम १६.४वें पत्रक दमरं प्रपर १३ पंक्तियाँ हैं और निवद्ध है और जिमकी उपलब्धि मुझे गत फवरी प्रत्येक पंक्तिम अक्षरोंका औमत (पड़ता) प्रायः ४८ माम (सन १९४७) में, रा० ब० ला० रूपचन्दजीकी अक्षरांका अर्थात डढ नोक जितना है । ग्रन्थकी यह कृपास कानपुरक बड़े मन्दिरक शानभण्डारका प्रति अच्छी सन्दर प्रायः शद्ध तथा पुराना लिखी हुई निरीक्षण करने हए, हुई है। इमक कता अभयचन्द्र है.-एकार आकारकी मात्राएं इसमें नय और पुराने सिद्धान्तचक्रवती है, जेमा कि ग्रन्थकी इम अन्तिम दोनो ढङस दी हैं और कागज भी पुराना देशी पंक्तिमे प्रकट है: लगा है। यार इमपर लिपि-संवन दिया हुआ नहीं “कृतिरियमभयचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्तिनः ।" है फिर भी अपनी वतमान जीरण-शीण स्थिति और मिद्धान्तचक्रवर्ती के सिवाय इन अभयचन्दका लिखावटपरसे यह दामी वपसे कमकी लिखी हुई दमग कोई परिचय ग्रन्थपरम उपलब्ध नहीं होता। मालूम नहा हाता। इस 'कामराज' नामक किमा संभवतः य 'अभयचन्द्र' व ही जान पडत है जो ब्रह्मचारीने लिखा है। जैसाकि ग्रन्थतिक अन्तिम गोम्मटमारकं जीवकाण्डकी 'मन्दप्रवाधिका' टीकाक वाक्य "ब्रह्म श्रीक्षेमराजन लिग्विता" में प्रकट है, जाकि कता है । यदि यह ठीक है तो इस ग्रन्थका रचना- उक्त प्रन्थकत त्व-मृचक वाक्यक अनन्तर स्थित है। काल ईसाका ३वीं शताब्दी* होना चाहिये। मङ्गलाचरणके बाद ग्रन्थका प्रारम्भ निम्न . देवी, अनेकांत वर्ष८ कि०८-६ पृ. ३२२ पर 'मन्द वाक्यम होता है-- पबाधिका' के समय मम्बंधी विचार, 'गोम्मटमार और "प्रान्मनः प्रदेशप बद्धं कर्म द्रव्यकर्म भावकर्म नानेमिचद्र' शीर्षक लग्बके अन्तर्गत । कर्म चेति त्रिविधम "
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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