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________________ भनेकान्त [वर्ष ८ - शिक्षाके मौलिक रूपमें बदल गए । मानवताके पुजारियोंने के हितसाधनमें बाधा उत्पन्न होन संभवनीय है या जिसके अखिल मानवताके लिए धमका न्यिसंदेश सुनाया । करनेसे स्वपं करने वालेको लज्जा या घृणा हो सके, उसे न भगवान महावीर भी धार्मिक आकाशके एक देवीप्यमान करना ही काननकी दृष्टिसे योग्य समझा गया। सारांश नक्षत्र थे। सदियों पहले से ही वीरपुङ्गवोंने धर्मकी ऐतिहासिक दृष्टिये मानव-समाजका जीवन एक सागरकी शीतल धाराप्रवाहित की। पतितीका रद्वार करने, दलितोंको भाँति है. इसमें रह रह कर रहें उठती रही, जब नीतिको बचाने, असहायको महायता देने, पश्चात्ताप की अग्निमे न काएं डूबने लगी तब धर्म के जहाजका अविष्कार हुआ, पाकुलित हृदयको मंतोषामृतकी दृष्टिये बुझाने माद और जब यह जहाज मंझधारमं श्रागया और किनारे पर पहुंचनेकी निराशाको दूर करके उत्साह, उमंग और कर्मण्यताको उम्मीद कम हो गई तो काननके बड़े बड़े जहाज विविध सिखाने और उच्च नागरिक श्रादर्शको स्थापित करनेके शस्त्रास्त्रोंये सुसजित होकर जीवन सागरको चीरनेके लिए खयालसे धर्मका जन्म हुआ। यही नहीं किन्तु धर्म में अवतीर्ण हुए। राजनीतिका भी प्रवेश प्रासानीसे हो गया। धार्मिक नियंत्रण से इस ऐतिहासिक खोजको या. जैन साहित्यकी कसौटीपर जौकिक व्यवहार बंध गये, विश्वमें शान्ति स्थापित हो जाँचा जाय तो उपरोक बातोंका बहुत यकी दतक समर्थन गई, संसार स्वर्गतुल्य हो गया। किन्तु काल सदासे ही हो जाता है। जैन साहित्यसे इस बात का पता चलता है परिवर्तनशील है। रूदियोंने धर्मकी जगह ले ली । समयानुसार कि भारतवर्ष में प.िले तीन काल तक भोगभूमि रही है। रुडियों में परिवर्तन न होने के कारण पतनका होना अनिवार्य य सा गी प्रेम, नीति, मुम्ब. श्रानन्द श्रादिका साम्राज्य हो गया। मनुष्यने अपनी मनुष्यता खां दी और जीवन था। न यहां आर्थिक अड़चन ही थीं और न किसी प्रकारकी खतरेमें पर गया । धार्मिक जिम्मेदारीको भूल जानेके झंझटें । किन्तु तीसरे कालक अन्तमें लोगोंको भय पैदा कारण वातावरण प्रक्षुब्ध हो उठा, अशान्तिकी लहरें एक हश्रा, अज्ञानने जोर पकडा, कर्तव्याकर्तनका भान न रहा, छोरसे लेकर दूसरे छोर तक उठने लगी । वर्तमान प्राधि- नैतिक बन्धन ढीले पड़ गये, कौटुबिक व्यवस्थ -नागरिक भौतिक जड़वादने एक और शान्ति प्रस्थापित करने के लिए प्रादर्शको शान्तिके हेतु स्थापन करनेकी आवश्यकता प्रतीत भरसक प्रयत्न किया तो दूसरी ओर वासनाओंकी अग्निको होने लगी। जगतमें घोर अशान्तिके बादल मंडला रहे थे, और भी प्रज्वलित कर दिया । सम्ति भूमण्डलपर सम्पूर्ण प्राकुलताका आधिपत्य हो चला था। ऐसे समयमै भगवान देशों में परस्पर सानिध्य और सम्पर्क संस्थापित हो पारिनाथने जन्म लेकर-आवश्यकता, समय व परिस्थितिकी जाने के कारण एकार दूसरेकी संस्कृति, साहित्य, विचारधारा, लघर में रखते हुए - नैतिक नियमांका निर्माण करके धर्मके वाणिज्य-व्यवसाय, कला आदिका प्रभाव पडा । विज्ञानकी मौलिक सिद्धान्तोंका प्रचार किया और भोगभूमिको कमजबरदस्त धीने जीवनकी कायापलटकरी और सुचारु भूमिमें परिणत कर दिया। धार्मिक सिद्धान्तोंकी उत्पत्ति रूपसे सारे जगतको कार्यक्षम बनाने के लिये काननकी शरण गहरे विचारका नतीजा थी, इसलिये व कथन और ली। जो काम प्राचीन काल में धार्मिक नियमों तथा संस्था. उपदेशसे इसका प्रचार होने लगा तथा इसकी सार्थकता ने किया वह अब वर्तमानकाल में राजशासन द्वारा किया सिद्धान्तोंको कार्यरूप में परिणत करनेसे होने लगी। यह जाने लगा। जहाँ नैतिक बल और धार्मिक जिम्मेदारी विचारधारा नैसर्गिक स्वाभ विक तथा समयानुकूल थी। अपने अपने कालमें कामयाब रहे, वहीं अब कानन द्वारा लोगोंने इसे हाथोंहाथ अपनाया। संसारकी समझमें यह सामाजिक वैयनिक तथा राष्ट्रीय जीवनका नियन्त्रण किया बात आगई कि धर्म और अधर्मके आचरण का परिणाम जा रहा है। अधर्म, पाप या कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करनेके क्रमशः सख और दुख होता है। इसीसे देश और समाजकी लिए कई तरह नियम बना दिये गये और इन नियमोंकी व्यवस्था रह सकती है, संसारके सौकिक व्यवहार चल अवहेलना या उत्तरदायित्वसे ग्युत होना काननकी दृष्टिसे सकते हैं। इसी तरह जब जब धार्मिक नियमोंकी भवसजाने योग्य समझा गया। हमारे जिन कामोंसे समाज- बनाकारण जगतमें प्रनीति और प्रशान्ति फैल जाती,
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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