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________________ ३१६ अनेकान्त [ वर्ष ८ क्रमशः न० ३०५, ३१४,३६९, ४३७, ४५९, ४८१,४८३, एक और अन्तकी तीन), जो चारित्रमोहनीय कर्मकी ४८४, ४८५ पर दर्ज हैं। शेष तीन गाथाएँ ('मदिसुद- २५, आयु कर्मकी ४ और नामकर्मकी ४२ पिण्डा ओहीमणपज्जव', 'चक्खूअचक्खुश्रोही' 'अह थीण- ऽपिण्ड प्रकृतियोंमेंसे गतिकी ४ जातिकी ५ और गिद्धिणिद्दा') जिनमें ज्ञानावरणकी ५ और दर्शना- शरीरकी ५ उत्तर प्रकृतियोंके नामोल्लेखको लिये हुए वरणकी ९ उत्तरप्रकृतियोंके नाम हैं, प्रकरणके साथ हैं, प्रकरणके साथ मङ्गत कही जा सकती हैं। क्योंकि मङ्गत हैं अथवा यों कहिये कि २२वीं गाथाके बाद इस हद तक वे भी मूल सूत्रोंके अनुरूप हैं। परन्तु उनकी स्थिति ठीक कही जा सकती है। क्योंकि मलसत्रोंके अनुसार २७वीं गाथाके मूलसूत्रोंकी तरह उनसे भी अगली तीन गाथाओं होनेके लिये शरीर बन्धनकी उत्तर-प्रकृतियोंसे (नं० २३, २४, २५) की सङ्गति ठीक बैट जाती है। सम्बन्ध रखने वाली 'पंचय सरीरबधण' नामकी वह (५) कर्मकाण्डमें २५वीं गाथाकं बाद 'विहं गाथा उनके अनन्तर और होनी चाहिये जो २७वीं खु वेयणीयं' और 'बंधादेगं मिच्छं' नामकी जिन दो गाथाके अनन्तर पाई जाने वाली ४ गाथाओंमें गाथाश्रीको कर्मप्रतिके अनुसार त्रुटित बतलाया प्रथम है, अन्यथा २७वीं गाथामें जिन १५ संयोगी जाता है वे भी प्रकरणके साथ मङ्गत हैं अथवा भेदोंका उल्लेख वे शरीरबन्धनके नाम न होकर उनकी स्थितिको २५वीं गाथाके बाद ठीक कहा जा शरीरके हो जाते हैं, जो कि एक सैद्धान्तिक भूल है मकता है; क्योंकि मूलसूत्रोंकी तरह उनमें भी क्रम- और जिसका ऊपर स्पष्टीकरण किया जा चुका है। प्राप्त वेदनीयकर्मकी दो उत्तर प्रकृतियों और मोहनीय एक सूत्र अथवा गाथाके आगे-पीछे हो जानेसे, इस कमेके दो भेद करके प्रथम भेद दर्शनमोहके तीन विषयमें, कर्मकाण्ड और कर्मप्रकृतिके प्रायः सभी भेदोंका उल्लेख है, और इसलिये उनसे भी अगली टीकाकारोंने गलती खाई है, जो उक्त २७वीं गाथाकी २६वीं गाथाकी सङ्गति ठीक बैठ जाती है। टीकामें यह लिख दिया है कि 'ये १५ संयोगी भेद शरीर(६) कर्मकाण्डकी २६वीं गाथाके अनन्तर कर्म के हैं, जबकि वे वास्तवमें 'शरीरबन्धन' नाम कमके प्रकृतिमें 'दुविहं चरित्तमीहं, अणं अपञ्चक्खाणं, भेद हैं। सिलपुढविभेदधूली, सिलटिकट्टवेत्ते, वेणुवमूलोरभय- (७) कर्मकाण्डकी २७वीं गाथाके पश्चात् कर्मकिमिरायचक्कतणुमल, सम्मत्तं देससयल, हस्सरदि, प्रकृतिमें पच यसरीरबधण, पच संघादणाम, समचउरं अरदि-सोयं, छादयदि सयं दोसे, पुरुगुणभोगे सेदे, णग्गोहं, ओरालियवेगुम्विय' ये चार गाथाएँ पाई णेवित्थी व पुमं, णारयतिरियणरामर,णेरइयतिरिय- जाती हैं, जिन्हें कर्मकाण्डमें त्रुटित बतलाया जाता माणुस. ओरालियवेगुम्विय' यं १४ गाथाएँ पाई है। इनमेंसे पहली गाथा तो २७वीं गाथाके ठीक जाती हैं, जिन्हें कर्मकाण्डके इस प्रथम अधिकारमें पूर्वमें संगत बैठती है, जैसा कि ऊपर बतलाया जा त्रुटित बतलाया जाता है। इनमेंसे 5 गाथाएं जो चुका है। शेष तीन गाथाएँ यहाँ संगत कही जा अनंतानुबन्धि आदि सोलहकषायों और स्त्रीवेदादि सकती हैं। क्योंकि इनमें मल-सूत्रांके अनुरूप मंघाततीन वेदोंके स्वरूपसे सम्बन्ध रखती हैं वे भी इस की ५, संस्थानकी ६ और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मकी ३ अधिकारकी कथन-शैली आदिकी दृष्टिसे उसका उत्तर प्रकृतियांका क्रमशः नामाल्लेख है। पिछली कोई आवश्यक अङ्ग मालूम नहीं होती-खासकर (चौथी) गाथाकी अनुपस्थिति में तो अगली कर्मउस हालतमें जब कि वे जीवकाण्डमें पहले आचुकी काण्ड वाली ८वीं गाथाका अर्थ भी ठीक घटित हैं और उसमें क्रमशः नं० २८३, २८४, २८५, २८६, नहीं हो सकता, जिसमें आठ अङ्गोंके नामदेकर शेष२८२, २७३, २७२, २७४ पर दर्ज हैं। शेष ६ गाथाएँ को उपाङ्ग बतलाया है और यह नहीं बतलाया कि वे (पहली दो, मध्यकी 'हस्सदिअरदिसोयं' नामकी अङ्गोपाङ्ग कौनसे शरीरसे सम्बन्ध रखते हैं।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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