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________________ सम्पादकीय वक्तव्य foo भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झण्डा और कर्तव्य को ई एक हजार वर्षकी गुलामी के बाद भारत १५ अगस्त सन् १९४७ को स्वतन्त्र हुआ— उसकी गर्दनपर से अवांछनीय विदेशी शासनका जूश्र उतरा, उसके पैरोंकी बेडियाँ- हाथोंकी हथकडियाँ कटीं और शरीर तथा मनपरके दूसरे बन्धन भी टूटे, जिन सबके कारण वह पराधीन था, स्वेच्छा से कहीं जा श्री नहीं सकता था, बोल नहीं सकता था, यथेष्टरूपमें कुछ कर नहीं सकता था और न उसे कहीं सम्मान ही प्राप्त था । उसमें अनेक उपायोंसे फूटके बीज बोए जाते थे और उनके द्वारा अपना उल्लू सीधा किया जाता था। साथ ही उसपर करों श्रादिका मनमाना बोझा लादा जाता था, तरह तरह के अन्याय-अत्याचार किये जाते थे, अप मानों - तिरस्कारों की बौछारें पड़ती थीं और उन सबके विरोधमें जुबान खोलने तकका उसे कोई अधिकार नहीं था। उसके लिये सत्य बोलना ही अपराध था । और इसलिये वह मजबूर था झूठ, चोरी, बेईमानी, घूसखोरी और ब्लेकमार्केट जैसे कुकर्मोंक लिये । इसीसे उसका नैतिक और धार्मिक पतन बड़ी तेजीके साथ होरहा था, सारा वातावरण गंदा एवं दूषित होगया था और कहीं भी सुखपूर्वक मांस लेनेके लिये स्थान नहीं था । धन्य है भारत की उन विभूतियों को जिन्होंने परतन्त्रताके इस दोषको समझा, स्वतन्त्रताका मूल्य का और उस मूल्यको चुकानेके लिये अहिंसा के साथ तप, त्याग तथा बलिदानका मार्ग अपनाया । परिणामस्वरूप जिन्हें घोर यातनाएँ सहनी पड़ीं, महीनों वर्षो जेलोंकी कालकोठरियों में सड़ना पड़ा सारे सुख-चैन और आरामको तिलाञ्जलि देनी पड़ी, सम्पत्तिका अपहरण देखना पड़ा और हृदयको व्यथित करने वाली देशीय तथा आत्मीय जनोंकी करुण पुकारों एवं कष्ट- कहानियोंको सुनना पड़ा । साथ ही, देशसे निर्वासित होना पड़ा, गोलियाँ खानी पड़ीं और फाँसी के तख्तोंपर भी लटकना पड़ा । परन्तु इन सब अवस्थाओं से गुज़रते हुए जो कभी अपने लक्ष्यसे विचलित नहीं हुए, वेदनाओं तथा प्रलोभनोंके सामने जिन्होंने कभी सिर नहीं झुकाया, हिंसाकी नीतिको नहीं छोड़ा, सतानेवालोंके प्रति भी उनके हृदय परिवर्तन तथा उनमें मानवताके सवार के लिये सदा शुभ कामनाएँ ही कीं, और जो अपने प्ररणके पक्के, वचनके सच्चे तथा संकल्प में अडोल रहे और जिन्होंने सब कुछ गंवाकर भी अपनी तथा देशकी प्रतिष्ठाको कायम रक्खा । यहाँ उन विभूतियों के नामोंको गिनानकी जरूरत नहीं और न उन्हें गिनाया ही जा सकता है; क्योंकि जो सुप्रसिद्ध विभूतियाँ हैं उनके नामोंसे तो सभी परिचित हैं, दूसरी विभूतियोंमें कितनी ही ऐसी विभूतियाँ भी हैं जो गुप्तरूपसे काम करती रही हैं और जिनका तपत्याग एवं बलिदान किसी भी प्रसिद्ध बड़ी विभूतिसं कम नहीं है । अकसर बड़ी विभूतियों को तो जेल में बन्द रहते हुए भी उतने कष्ट सहन नहीं करने पड़े हैं जितने कि किसी-किसी छोटी विभूतिको सहन करने पड़े हैं । अतः यहाँपर किसीका भो नाम न देकर उन सभी छोटी-बड़ी, प्रसिद्ध - श्रप्रसिद्ध विभूतियोंको सादर प्रणामाञ्जलि समर्पित है जो भारतकी मुक्तिकं लिये बराबर प्रयत्न करती रही हैं और जिनके सत्प्रयत्नोंके फलस्वरूप ही देशको आज वह स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है जिसके कारण भारतवासी अब आजादी के साथ
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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