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________________ ४७२ अनेकान्त [ वर्ष ८ मैं हृदयसे क्षमा-प्रार्थी हूं; क्योंकि मेरा लक्ष्य जानबूझ के अधिकारी नहीं होंगे । इममें सन्देह नहीं कि शास्त्री कर किसीको भी व्यर्थ कष्ट पहुँचानेका नहीं रहा है जी समाजके एक कर्मठ विद्वान हैं, उसके पुराने सेवकोंमें और न सम्पादकीय कर्तव्यसे उपेक्षा धारणा करना से हैं और उनके हृदयमें भी समाज-सेवाकी अपनीही मुझे कभी इष्ट रहा है। जैसी ही लगन है। वे पहले कई पत्रोंको समयपर निकालते भी आये हैं। अतः आशा है कि वे अपने प्रण २ अनेकान्तका अगला वर्ष को जरूर पूरा करेंगे। उनके इस आश्वासनके बलपर __ श्रीवास्तव-प्रेसके आश्वासन-भङ्ग और गैरजिम्मे- ही पत्रको अगले वर्षकं लिये चालू रखा गया है । दाराना रवैये आदिके कारण जब अन्तको मई मासके अगला वर्ष जनवरी सन् १९४८ के मध्यसे प्रारम्भ शुरूमें रॉयल प्रेसकी शरण लेनी पड़ी तब यह निश्चित होगा। वाषिक चन्दा अगले वर्षसे.५) रु० रहेगा, हुआ था कि अनेकान्त के इस वर्षकी अवशिष्ट पाँच वतमान महंगाई और प्रसोंके बढ़ते हुए चाजको किरणोंको तीन महीनेमें निकाल दिया जावेगा, देखते हुए यह मूल्य भी कम ही है और इससे पत्रका परन्तु कुछ परिस्थितियांवश वैसा नहीं होसका और पूगखर्च नहीं निकल सकता; फिर भी चूंकि अपनी दृष्टिइसलिये इन किरणों के प्रकाशनमें तीनकी जगह आठ आर्थिक न होकर समाज-सेवाकी है इसीसे अपेक्षामहीनेका समय लग गया । इससे मेरा दिल टूट कृत कम मूल्य रक्खा जाता है। इस किरणके मिलते गया और मैं प्रेमसे आगेके लिये यथेष्ट आश्वासन न ही प्रेमी पाठकोंको अपना ५)रु.चन्दा मनीऑर्डरसे भे मिलनेके कारण इस पत्रको बन्द करना ही चाहता देना चाहिय, जिमसे अगली किरण प्रकाशित होते था कि प०अजितकुमारजी शास्त्रीने, जो हालमें अपना ही उनके पास ठीक समयपर पहुँच जाय–वी० पी० 'अकलङ्क प्रेस' मुलतानसे सहारनपुर ले आये हैं, से भेजनेमें अधिक समय लगता है। अगले वर्षसे मुझे वैमा करनेसे रोका और दृढताकं साथ यह पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य सहायक सम्पादकके श्रावामन दिया कि हम अनकान्तको अपना ही पत्र रूपमें काय करगे, इससे पाठकांका और भी कितनी ममझकर उस समयपर निकालेंगे, ममयपर निकालने ही बातोंका लाभ रहेगा। अगले वर्ष इस पत्रको कलिय जरूरत पड़नपर अन्य सबकार्योंको गौण कर देंगे सर्वसाधारणकी दृष्टि से भी अधिक लोकोपय गी और यदि समयपर न दे सकेंगे तो नियत चार्ज पाने बनानेका आयोजन हो रहा है। बाबू छोटेलालजी कलकत्ताकी सहायता और मेरी कृतज्ञता मेरी धर्मपत्नी तो बीमार चल ही रही थी, किन्तु जुलाईक अन्तम मैं भी महसा बीमार होगया और करीब तीन सप्ताह सख्त बीमार रहा । मेरी यह बीमारी टाइफाइडके ममान बड़ा भयङ्कर थी और मुझे अपने बचनेकी बहुत कम आशा रही थी; किन्तु मुख्तार साहबकी सद्भावना तथा मित्रवर पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाच.र्यकी समवेदना, सेवा और दवाई आदिकी व्यवस्थाने मुझं स्वस्थ्य कर दिया । इस स्वस्थ्यतामें मुझे जिनकी अधिक कृतज्ञता प्रकट करनी है वे हैं श्रीमान बाबू छोट जालजी रइस, कलकत्ता । आपने कोठियाजीक पत्र द्वारा मेरी और मेरी धर्मपत्नीकी बीमारी सम्बन्धी संकेत पाते हो मेरे इलाजके वास्ते हार्दिक महानुभूतिको लिये हुए दोसौ रुपयकी आर्थिक सहायता भेजी और बड़ी चिन्ता प्रकट की । मै बाबू साहबकी इस महानुभूतिपूर्ण उदारनाके लिये बहुत ही आभारी और कृतज्ञ हूँ। श्रीमान् प० कैलाशचन्दजी शास्त्री, बनारस आदिने भी मेरी बीमारीपर चिन्ता और सहानुभूति प्रकट की । मैं उनका और कोठियाजीका भी आभारी हूँ । यदि इन सबकी सहायता न मिलती तो शायद इतनी जल्दी पूर्ण स्वस्थ्य न हो पाता। -परमानन्द जैन
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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