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किरण ८-९]
दक्षिण भारतके राजवंशोंमें जैनधर्मका प्रभाव
धर्मकी अति सुसमृद्ध दशा थी इस बातकी मूक देशीपन ही था। उनके द्वारा तामिल, तेलगु तथा साक्षी देते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र, श्रवण- कन्नडी भाषाकी कितने ही सर्वाधिक प्रख्यात प्रथमबेलगोल, कोप्पण, हुम्मच, बनवासी, वन्दिनिके, वर्गीय रचनाओंकी उत्पत्ति हुई । इनमेंसे विशेष द्वारसमुद्र आदि थे। जिन व्यक्तियोंने इन स्थानोंकी विश्रुत कई साहित्यकारों और उनकी अपूर्व रचनाओंयात्रा और दर्शन किये हैं उन्हें उपर्यक्त कथनकी के विवरण जानने योग्य हैं। केवल नैतिक एवं सत्यताका भले प्रकार अनुभव हुए बिना नहीं चारित्र-सम्बन्धी उपदेशों तथा साहित्यके रूपमें ही रहा है।
नहीं किन्तु कला, स्थापत्य और लोकोपकारी सङ्गमकालके प्राचीन तामिल साहित्य पर भी संस्थाओंके क्षेत्रोंमें भी दाक्षिणात्य संस्कृतिके लिये जैनधर्मका प्रभाव लक्षित होता है और उसमें जैनधर्म- जैनधर्मका दान सर्वोच्च महत्वका है और उत्तरकालमें संबंधी अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं । तामिल देशमें अन्य सम्प्रदायवालोंने उन्हींका अनुकरण-अनुसरण जैनधर्मके विशेष प्रचारका श्रेय कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, किया है। पूज्यपाद, अकलङ्क, कनकसेन, गुणनन्दि आदि हिन्दू संस्कृतिको जैनियोंकी जो सबसे बड़ी देन जैनाचार्योंको है । इन प्रातः स्मरणीय गुरुओंके द्वारा रही है वह है धार्मिक सहिष्णुता, और एक बड़े धार्मिक एवं दार्शनिक क्षेत्रमें किये गये महान कार्योंने अंशमें उसका श्रेय उनके अहिंसा तथा अनेकान्त तामिल देश और कर्णाटक प्रान्तके बीच घनिष्ट सिद्धान्तको है। जैनियोंकी उस निष्ठा और कट्टरताके सम्पर्क स्थापित कर दिया था । द्रविड़ या मिलसंघ लिये जिसके साथ वे अपने धार्मिक सिद्धान्तोंपर नामका एक पृथक् जैन संघ ही स्थापित होगया आरूढ़ रहे, और उस आग्रह, दृढ़ता एवं पटुताके था । सुदूर दक्षिणमें आज भी कितने ही ऐसे जैन लिये जिसके साथ वे धार्मिक वादविवादोंमें अपने सांस्कृतिक अवशेष अवस्थित हैं जो अत्यन्त महत्व- विरोधियोंका मुक़ाबला करते थे और उन्हें पूर्ण एवं दर्शनीय हैं।
परास्त करते थे-चाहे कुछ भी कहा जाय, किन्तु ___ आंध्रदेशमें जैनधर्मका प्रचार मौर्यकालके पूर्वसे इस बातसे इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने ही लक्षित होने लगता है। सम्राट महामेघवाहन धार्मिक सहिष्णुताके असूल (सिद्धान्त)का भारतवर्ष के खारवेल जैनधर्मका परम भक्त था । आंध्रदेशमें किसी भी अन्य जाति या सम्प्रदायकी अपेक्षा कहीं सर्वत्र जैनधर्मके अनेकों अवशेष आज भी अवस्थित अधिक सत्यता. यथार्थता एवं सफलताके साथ हैं । उस युगमें, आंध्र, कर्णाटक तथा उसके इर्दगिर्द पालन किया है। परन्तु जैसे जैसे समय बीतता गया कितने ही छोटे बड़े जैन सांस्कृतिक केन्द्र थे। उत्कृष्ट कोटि के जैन नेताओंका अभाव होता गया।
पीछे आने वाली पीढ़ियोंके लिये जैनधर्मकी शैवों और वैष्णवोंने, विशेषकर तामिलदेशमें, जैनों एक सबसे बड़ी देन यह रही है कि इसने कर्णाटक, का ही पदानुसरण करते हुए अपने २ सम्प्रदायको तामिल और आंध्र इन तीनों ही प्रदेशोंके भाषा- सुदृढ़रूपस सङ्गठित कर लिया । अन्तर इतना ही था साहित्यकी अत्यधिक अभिवृद्धि की है। जैन गरुओंने कि उनके इस सङ्गठनका एक भारी उद्देश्य जैनियोंका जोकि इन तीनों ही देशोंके बौद्धिक संरक्षक रहे हैं, ही विरोध करना रहा, फलनः जैनोंके साथ उन्होंने उनकी देश भाषाओंको अत्यधिक तत्परताके साथ बड़ेबड़े दुर्व्यवहार किये, और तिरूज्ञानसम्बंदरके अभ्यास किया, और उनमें देशके लिये स्थायी महत्व- समयमें तो ये दुर्व्यवहार चरम सीमाको पहुँच गये। के अनेकों महान ग्रन्थोंकी रचना की। यद्यपि प्रायः इससे अधिक खेदजनक बात अन्य नहीं हो सकती सर्व ही प्राचीन जैन लेखक संस्कृतभाषाके उद्भट कि अपने प्रतिद्वन्द्वी मतों, विशेषकर जैनधर्मके प्रति विद्वान् थे तथापि उनकी रचनाओंका मूलमन्त्र सहिष्णुता प्रदर्शित करनेमें दक्षिण भारतके हिन्दू