Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 488
________________ ३४२ अनेकान्त [वर्ष ८ 0 पायुप्य -वेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमन - सुखप्रतिबन्ध- कार्य है वह नहीं होता तथा उनमें आत्माके गुणोंको कयोः सत्वात् । घातनेका सामर्थ्य नहीं है । अतः अरहन्तों और नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाश सिद्धोंमें गुणकृत भेद नहीं है ? ___उत्तर-नहीं, क्योंकि आयु और वेदनीयका प्रसङ्गात् । सुखमपि न गुणस्तत एव । न वेदनीयो- उदय, जो क्रमशः जीवके उद्धर्वगमन और सुखका दयो दुःखजनकः केवालनि केवलित्वान्यथानुपत्ते- प्रतिबन्धक है, अरहन्तोंके विद्यमान है। रिति चेदस्त्येवमेव, न्यायप्राप्तत्वात । किन्त सलेप- प्रश्न-उद्ध्वगमन आत्माका गुण नहीं है; क्योंकि उसके अभावसे आत्माके विनाशका प्रसङ्ग निलेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् ।" आवेगा। इसी प्रकार सुख भी आत्माका गुण नहीं ___-धवला, पहली पु० पृ० ४६-४७। है: क्योंकि कारण वही है अर्थात् सुखके अभावमें इस उद्धरणमेस प्रो. सा. ने अपने लेखमें ' ..... आत्माके विनाशका प्रसङ्ग श्रावेगा। तथा वेदनीयका सुखप्रतिबन्धकयोः सत्वात' तकका ही अधूरा हिस्सा उदय केवलीमें दुःखकी वेदना नहीं करता, अन्यथा दिया है-उससे आगेका 'नार्वगमन' आदि शेष वे केवली नहीं बन सकेंगे-उनमें केवलीपना नहीं भाग नहीं दिया, जो ही वीरमनस्वामीके हादको हो सकेगा ? प्रकट करता है और सैद्धान्तिक स्थितिको प्रस्तुत उत्तर-ऐसा ही हो, क्योंकि वह न्यायप्राप्त हैकरता है; क्योंकि वास्तवमं सिद्धान्त पक्ष पूरे प्रश्नो- युक्ति-सङ्गत है । अर्थात न ऊर्ध्वगमन तथा सुख त्तरोंके अन्तमें ही स्थित होता है । इस पूरे उद्धरणका आन्मगुण है और न वेदनीयका उदय केवलीमें दुखकी हिन्दी अर्थ नीचं दिया जाता है: वेदना करता है क्योंकि वह न्यायसङ्गत है और इस प्रश्न-अरहन्तों और सिद्धांमें क्या भेद है ? लिय अरहन्तों तथा सिद्धोंमें गुणकृत भेद नहीं है उत्तर--जिनके आठों कर्म नष्ट होचुके है व ती गुणोंकी अपेक्षास दोनोंमें समानता है । किन्तु सिद्ध हैं और जिनकं चार घातियाकर्म ही नाश हुए मलेपता और निर्लेपना तथा देशभंदसे उनमें भेद हैहै-शेष अघातिया चार कम मौजूद है वे अरहन्त अरहन्त सलेप हैं और सिद्ध निर्लेप तथा अरहन्त है, यही उनमें भंद है। भवस्थ हैं और सिद्ध मुक्तिस्थ, इस प्रकार उनमें ___ प्रश्न-घातियाकर्मोंके नाश होजानसं अरहन्तोंक भेद सिद्ध है । समस्त गुण प्रकट होचुके हैं और इसलिये उनमें अब विद्वान पाठक, यहाँ देखें, वीरसेनस्वामीने गुणकृत भेद नहीं है ? कहाँ 'सूर्यप्रकाशवत सुस्पष्ट' अरहन्तावस्थामें सुखउत्तर--नहीं, अरहन्ताक अघातिया कर्मोंका उदय दुखकी वेदना बतलाई है ? प्रत्युत उन्होंने तो उसका और मत्व मौजूद है। निराकरण ही किया है । हमें आश्चर्य है कि वीरसेनप्रश्न- अघातियाकर्म शुक्लध्यानरूपी अनिस स्वामीकी धवला और जयधवला टीका और यहाँ अधजले होजानसे मौजूद रहनपर भी अपने कार्यको तक कि समम्त दिगम्बर जैन शास्त्र भी उनके पक्षके नहीं करते हैं ? जरा भी समर्थक नहीं हैं फिर भी प्रो. सा. उनके ___उत्तर-नहीं, क्योंकि शरीरका निपात नहीं वाक्योंको उद्धृत करनेका मोह त्याग नहीं कर रहे हैं। होता, इसलिये श्रायु आदि शंष कोका उदय और हम प्रो. सा. से नम्र प्रार्थना करेंगे कि वे कमसे कम सत्व दोनोंका अस्तित्व सिद्ध है।। विद्वान् पाठकोंको तो चकमा न दें और उनकी प्रश्न-आयु आदि कर्मोंका, जो चौरासी लाख आँखाम धूल झोंकनेका हाम्यास्पद असफल प्रयत्न योनिरूप और जन्म, जरा, मरण विशिष्ट संसार न करें। वीरसेनस्वामी जब यह स्पष्टतया स्वीकार कर

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