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किरण ८-९]
जैन स्थापत्यकी कुछ अद्वितीय विशेषताएँ
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रहे हैं कि 'यह प्रमाणयुक्त है कि ऊर्ध्वगमन तथा होकर सलेप-निर्लेप और देशभेदकृतभेद हैं ।' तब सुख आत्माके गुण नहीं है क्योकि उनके प्रभावमै उनका पाठकों के सामने विपरीत श्राशय रखना क्या (जिस समय आत्मामें ऊर्ध्वगमन नहीं है अथवा न्याययुक्त है ? इससे यह प्रकट है कि सिद्धान्तमें सुख नहीं है उस समयमें) आत्माके अभावका प्रसङ्ग केवलीमें सुख-दुखकी वेदना कहीं भी नहीं मानी गई
आवेगा । तथा वेदनीय केवलीमें दुखकी वेदना और न वीरसेनस्वामीने ही बतलाई है। नहीं करता है; क्योंकि दुःखकी वेदना माननेपर उनमें केवलीपना नहीं बन सकेगा। और वीरसेवामन्दिर, सरसावा इसलिये अरहन्तों तथा सिद्धोंमें गणकृत भेद न
-(अगले अङ्कम समाप्त) २२-२-१९४७
जैन स्थापत्यकी कुछ अद्वितीय विशेषताएँ
नई दिल्ली का जैन मन्दिर
बहधा उपयोग किया है। शताब्दियों तक बिना ___ इस मन्दिरमें स्थापत्यकला सम्बन्धी कतिपय विशष परिवतनके यह प्रयुक्त होता रहा, किन्तु अप्रतिम विशेषताएँ लक्षित होती हैं। फर्गसन साहब कम से कम, बून्दीकी विशाल बावड़ी जैसे उदाहरण ने इसका निम्न प्रकार वर्णन किया है :
में हम इस मात्र एक सौन्दर्योपकरण रूपमें ही "एक और उदाहरण एसा है जो कि विक्षित
अवनत हुआ देखते हैं। और इस बातका श्रेय तो विषयकी इस शाखाका विवेचन समाप्त करने के पूर्व
गत शताब्दीके अन्त में अथवा वर्तमान शताब्दी निश्चय ही ध्यान देने योग्य है, न केवल अपनी
( १९वीं) के प्रारम्भमें होने वाले उस मुस्लिम नगरी
देहलीकं एक जैन शिल्पीको ही है जिसने ऐसा ढङ्ग सुन्दरताके ही लिये वरन अपनी अद्वितीयताके लिये
प्रस्तुत किया कि जिसके द्वारा वह वस्तु जो मात्र भी । गत पृष्ठोंमें लकड़ीके उस अद्भत 'महार' (या कैंची, Strut ) के विषय में बहुधा कथन किया गया
एक प्रथानुसारी सुन्दर वस्तु समझी जाती थी, है जिसके द्वारा जैन शिल्पियोन अपने गुम्बदों
प्रस्तर-स्थापत्यका एक वस्तुतः उपयुक्त निमातृ अङ्ग (शिखरां) के नीचकी लम्बी शहतीरोंकी प्रत्यक्ष
हा सकी। कमजोरीको दूर करनका प्रयास किया है। यह आबू, इस शिल्पीकी विलक्षण सूझने उक्त सहार गिरनार, उदयपुर तथा अन्य अनेक स्थानोम, (कैंची) के समग्र पिछले भागको अत्यन्त कलापूर्ण जिनका कि हम प्रकरणानुमार विवेचन करेंगे, और योजना वाले गुदे हुए फूलपत्तीदार चित्राङ्कनासे वस्तुतः प्रायः सर्वत्र ही जहाँ कहीं कि अष्टकोण भर दिया, और इस प्रकार उम वस्तुको जो यद्यपि गुम्बद का उपयोग हुआ है, उपलब्ध होता है । मुन्दर होते हुए भी जैन स्थापत्य योजनाका एक भारतीयोंने अपन तोरणद्वारों (तोरणों) में भी इसका दुबलतम अङ्ग थी, एक पूर्णत: प्रकल्पक प्रस्तर उपयोग किया था और यह एक ऐसा प्रिय सौन्दर्यो- कोष्टक (दीवालगिरी) के रूपमें परिवर्तीत कर दिया, पकरण होगया था कि सम्राट अकबरने आगरा और और उसे भारतीय म्थापत्यकी सर्वाधिक दर्शनीय फतहपुरसीकरी दोनों ही स्थानोंकी इमारनाम इसका वस्तु बना दिया, माथ ही, ऐसा करने उसने उसके