Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 492
________________ ३४६ अनेकान्त [ वर्ष ८ नाम उदयश्री था जो पतित्रता और शीलव्रतका मुनि श्री सौभाग्य विजयजीने अपनी तीर्थमालामें पालन करने वाली तथा चतुर्विधसंघके लिये कल्प- चन्द्रवाडमें अपार अथवा अगणित प्रतिमाओंके निधि थी। इनके पाठ पुत्र थे, जसपाल, जयपाल, होनेका उल्लेख किया है, जैसा कि उनके निम्न रतपाल, चंद्रपाल, विद्दराज, पुण्यपाल, वाहड और वाक्यसे प्रकट है:रूपदव । ये श्राठों पत्र अपने पिताके समान ही योग्य 'जी हो सोरीपुर उत्तरदिशें जी हो यमना तटनी पार । चतुर और धर्मात्मा थे । इम सब परिकर महित जी हो चंदनवाड़ी नामें कहें जी हो तिहां प्रतिमा छै साहू वासाधर राज्यकार्य करते हुए धर्मका साधन अपार ।। -१४-२ पृ० ९८ करते थे। इनके पिता सोमदेवश्रेष्ठी भी संभगंगयके इम उल्लेखसे और कविहर धनपालके बाहबलि समय मंत्री पदपर आसीन हो चुके थे। चरितसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि सौरीपुरके कविवर धनपालन अपने ग्रंथमें सारङ्ग नरेन्द्रके. भगवान नेमिनाथकी वन्दना करके लोग चन्दवाड़बाद, अभयपाल, जयचन्द और रामचन्द्र नामके की अपार मतियोंकी बन्दना भी किया करते थे। राजाओंका समुल्लेख किया है। इनमेंसे संवत १४६८ इसके सिवाय, कविवर रइधून अपने 'पुण्यामें महाराजाधिराज रामचन्द्रदेव राज्य कर रहे थे। सवकथाकोस' नामक ग्रन्थकी प्रशस्तिमें चन्द्रवाडके क्योंकि सं० १४६८के ज्येष्ठ कृष्णा पंद्रस शुक्रवारके राजा प्रतापरुद्रका उल्लेख करते हुए उसकी मङ्गल दिन उसी चन्द्रपाट नगरमें अमरकीतिके 'पट्कर्मों- कामना भी व्यक्तकी है और उस युद्धरूपी समुद्रका पदेश' (छक्कम्मोवएस) नामक ग्रंथकी प्रतिलिपि अवगाहन करने वाला सूचित किया है : हक प्रथम पुत्र उदयसिहक ज्यष्ट पुत्र णंद उचिमराउ पयावरुद्द, अवगाहिउजिाहवसमुह । दल्हाके द्वितीय पुत्र अर्जुनने ज्ञानावरणीय कर्मके तव्वयणविणिदह सव्वभासि, सिरिचंदवाडपट्टणक्षयार्थ लिखवाई थी। यह प्रति आजकल नागौर णिवासि ।। (जोधपुर स्टेट)के भट्रारकीय शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित चकि कविवर रइधका समय विक्रमकी १५वीं है । इस ग्रंथकी यह प्रतिलिपि मूलसंघी गोला- शताब्दीका अन्तिम चरण और १६वीं शताब्दीका राडान्वयी पण्डित असपालके पुत्र विद्याधरने प्रथम चरण है, अतः उस समय तक भी चन्द्रवाडमें की थी । जैनियोंका निवास था, परन्तु यह प्रयत्न करने पर १ देखो, अनेकान्त वर्ष ७, किरण ७.८, पृ० ४८४-८५ भी मालूम नहीं हो सका कि प्रतापरुद्र किस वंशका २ अथ संवत्सरे १४६८ वर्ष व्यत्र कृष्णा पञ्चदश्यां शुक्रवामरे श्रीमचन्द्र पाटनगरे महाराजाधिराज श्रीरामचन्द्रदेव इनके अतिरिक्त वि० सं० १५३० में कविवर रान्ये । तत्र श्रीकन्द कन्दाचार्यान्वये श्रीमलमंघे गजर श्रीधरन भविष्यदत्तचरित्रकी रचना चन्दवाड (गुर्जर) गोष्ठि तिहथगा गेरिया साधुश्रीजगमीहा भार्या सोमा नगरके माथुर कुलके नारायणके पुत्र और वासुदेवके तयोः पुत्राः [चत्वारः] प्रथम पुत्र उदेसीह [द्वितीय] ज्यष्ठ भ्राता मनिवर सुपट्टसाहू की प्रेरणासे की है। अजैसीह तृतीय पदगज, चतुर्थ ग्वाम्हदेव । ज्येष्ठ पुत्र सैलाद्रक्षे जलाद्रक्षे रक्षं शिथिल बंधनात् । उदैसीह भायारतो त्रयों पुत्राः, ज्येष्ठ पुत्र देल्हा द्वितीय परहस्तगतं रक्षेद् एवं वदति पुस्तिका ||२|| राम, तृतीय भीग्बम । ज्येष्ट पुत्र देल्दा भार्या हिरो तयोः गोलागडान्वये इक्ष्वाकुवंशे श्रीमूलसंधे पण्डित पुत्राः द्वयोः । ज्येष्ट पुत्र हाल, द्वितीय अर्जुन ज्ञाना- असपालमुतविद्याधरनामा लिलेखि छ।। वरणीकर्म क्षयार्थ इदं पटकमा पदेशशास्त्रं लिखापितं ।। -नागार भण्डार प्रति भग्नपृष्टि कटि ग्रीवा मच्च दृष्टिरधोमुखं । ३ मिरि चंदवारण्यरहिएण, जिण धम्मकरण उक्कहिएण कण्टेन लिखित शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ।।१।। माहुरकुल गयण तमीहरेण, विवुयण सुयण मण घण हरेण

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