Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 481
________________ किरण ८-९] रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है नहीं हो और उनपरसे केवलीमें उपर्युक्त दोषोंका हैं वही सिद्ध होती है. क्योंकि छठे गुणस्थानमें सुखअभाव भी अस्वीकार हो तो वे नियुक्तिकार भद्रबाहु- दुग्वकी वेदनाके साथ प्रमाद और कषाय इन दो के प्रतिपादनको तो अवश्य प्रमाण मानेंगे, क्योंकि वे बन्धके कारणोंसे कर्मबन्ध अवश्य होगा।' इसका उन्हें तथा स्वामी ममन्तभद्रको एक म्वीकार करते हमने उत्तर दिया था कि 'पूर्वपक्षी प्रमाद और हैं। और मैं यह द्वितीय लेखमें नियुक्तियोंके विविध कषायको बन्धका कारण नहीं मानना चाहता, वह प्रमाणोल्लेखोंसे बतला आया हूँ कि नियुक्तिकार तो केवल एकान्तत: दुःखोत्पत्ति और सुखोत्पत्तिको भद्रबाहुन केवलीमें जन्म, जरा, मरण, सुधा, पिपासा ही बन्धकारण कहना चाहता है, और उसके इस इन दोषोंका अभाव प्रतिपादित किया है और कथनमें ही उपयुक्त (कारिकागत) दोष दिये गये हैं। असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियांको केवलीमें जब उसने अपने एकान्त पक्षको छोडकर यह कहा अपना अशुभ फल न देनेका कथन किया है। इस कि अभिमन्धि' (प्रमाद और कषाय) भी उसमें सम्बन्धमें प्रो. सा. सर्वथा मौन होगये और इस कारण हैं तब उससे कहा गया कि यह तो (हमारी) लिये 'मौनं सम्मतिलक्षणम' समझना चाहिये । अनेकान्त सिद्धि आगई-श्रापका 'परत्र सुखदुःखोअन्यथा या तो उन्हें समन्तभद्रस्वामी और भद्रबाहु त्पादनं पुण्यपापबन्धहेतुः' इत्यादि एकान्त नहीं रहा। नियक्तिकारको दो व्यक्ति स्वीकार कर लेना इससे यह साफ है कि यहाँ (कारिकाम) छठे आदि चाहिय और वैमी घोपणा कर देनी चाहिये अथवा गुणस्थानवी मुनिकी-(साधु और उपाध्याय दोनोंको एक सिद्ध करना चाहिये और उस हालतमें परमेष्ठीकी) ही विवक्षा है।' अपने इस कथनका उन्हें कंवलीमें उपर्युक्त भद्रबाहु प्रतिपादित जन्मादि हमने आचार्य विद्यानन्दकं अष्टसहस्रीगत विशद दोपोंके अभावको स्वीकार करना अनिवार्य है। व्याख्यानसे सप्रमाण समर्थन भी किया था। श्रतः प्रो. मा.को दोनों तरफसे 'इतो व्याघ्र इतम्तटी' अब प्रस्तुत लेखमें प्रो. सा. लिखते हैं कि 'यहाँ है। अतः इस विवंचनसे केवली में जन्मादि ६ प्रश्न यह है कि आचार्यन पूर्वपक्षीका वह एकान्त पक्ष दापोंके अभावका भी सम्पष्ट निणय होजाता है। छडाया कैसे, और उसे यह कैमे विश्वास कराया कि ५३वीं कारिकामें प्राप्तमीमांसाकारको विवक्षा- बन्धका कारण कंवल सुख-दुख नहीं होता ?' अपन प्रो. मा.न चंवलीग मुख-दुःखकी वेदना प्रमाणित इम प्रश्न आगे आप एक गीली और सूखा लकड़ीकरने के लिये श्राप्रमीमांमाकी ५२व कारिका प्रस्तुत का उदाहरण देते हुए और लिखते हैं कि 'ठीक इसी की थी और उसमें प्रयुक्त ए वीतराग' तथा 'विद्वान' प्रकार प्राप्तमीमांसाकी उम कारिकामं पूर्वपक्षीकी जो पदोंम प्राप्तमीमांसाकारका यह अभिप्राय प्रकट शङ्का है कि अपने दुखसे पुण्य और सुखस पापका किया था कि वे उसमें कंवलीम मुख-दुःखकी वंदना बन्ध होता है उसके निराकरणकं लिये श्राचाय उस म्वीकार करते है। इसपर हमने बतलाया था कि एक ऐमा व्यक्ति दिखलाते हैं जिसके सुख-दुख तो वहाँ उक्त पदोंक प्राप्रमीमांमाकारका कंवलीका हैं किन्तु फिर भी पुण्य-पापका बन्ध नहीं है। ऐसा अभिप्राय नहीं है, छठं आदि गुणस्थानवी मुनिका व्यक्ति वेदनीयोदयसं युक्त किन्तु अबन्धक जीव हा है, जो कायक्लोशादि दुखको और तत्वज्ञानजन्य हो सकता है। छठ आदि गुणस्थानवर्ती बन्धक मन्तोषलक्षण-यग्यको उत्पन्न करता है । इसपर जीवाक उदाहरण पेश करनेस पूर्वपक्षीकी बातका श्रापन बादको लिखा था कि यदि उक्त कारिाम वण्डन कदापि नहीं हो सकता, बल्कि उससे तो उसकी छठे आदि गुणस्थानवी भुनिका ग्रहण किया जाय शङ्काकी ही पुष्टि होगी, क्योंकि उन माधुओंके सुखतो फिर प्रतिपाद्य विपयकी युक्ति ही बिगड़ जाता है, दुख कषाययुक्त होनस कर्मबन्धक है ही। अतएव और विपरीत होनेसे जो बात प्रसिद्ध करना चाहते पण्डितजीके समाधानसे उनके पक्षका समर्थन नहीं

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