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किरण ८-९]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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न कर इधर-उधर दौड़ना बुद्धिमानी नहीं है। कहना है कि 'वीतराग और विद्वान् गुण परस्पर बुद्धिमानी तो इसमें है कि जो अज्ञानसे मलोत्पत्तिकी विरोधी भी नहीं हैं जो एक ही व्यक्तिमें न पाये बात कही गई है वह भूल से कही गई है, इस प्रकार जाते हों। इस कारिकामें क्रिया भी एक वचन है। से अपनी भूलको स्वीकार कर ली जाय न कि एक तब फिर यहाँ वीतराग और विद्वान दोनोंके विशेष्य भूलकी पुष्टिके लिये नई और अनेकों भूलें की जायें। दो अलग-अलग मुनि माननेकी क्या सार्थकता है इससे यह पाठकोंपर बिल्कुल स्पष्ट होजाता है कि और उसके लिये कारिकामें क्या आधार है ?' प्रो. मा. ने अज्ञानसे मलोत्पत्ति स्पष्टतः कही है। इसपर हमारा निवेदन है कि यद्यपि वीतरागता
(२) जब अज्ञानसे मलोत्पत्ति कही है तो उससे और विद्वत्ता ये दो गुण परस्पर विरोधी नहीं हैं, पर प्रकट है कि उन्होंने सैद्धान्तिक भूल की है क्योंकि यदि वक्ताकी उन दो गुणोंसे दो व्यक्तियोंका बोध सिद्धान्तमें बिना मोहके अज्ञानको मलोत्पत्तिका करानेकी विवक्षा हो तो उसे कौन रोक सकता है ? जनक नहीं माना है और इमलिये यह भूल मैंने आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन परमेष्ठियोंमें उनके सिर जबर्दस्ती नहीं मढ़ी-उन्होंने उसे की भी तो कोई मौलिक भेद नहीं है। साधुके अट्राईस इसलिये वह उनके सिर मढी गई।
मलगण क्या उपाध्याय और प्राचार्य नहीं पालते ? (३) और जब उनकी यह सैद्धान्तिक भूल है; तो अथवा उपाध्यायके स्वाध्यायका काम आचाय और उसके बतलाने में मेरी हीन प्रवृति कैसे हुई ? यह साधु नहीं करते ? या प्राचार्यकं पंचाचारादिका ममझमें नहीं आया । लोकमें जो अपराध करता है पालन उपाध्याय और साध नहीं करते ? याद करते उसे ही लोग हीन प्रवृत्तिका कहते हैं पर जो सदा- हैं तो ये जुद-जुद तीन परमेष्ठी फिर क्यों कह गये ? शयतासे उसके अपराधको उसे इसलिये बतलाता है अरहन्त और सिद्ध इन दोक सिवाय एक साधु कि वह अपनी भूलको कबूल करके आगे अप्रमत्त परमेष्ठाका ही सिद्धान्तमें बतलाना उचित था और रहे तो मेरे खयालमें कोई भी उसे हीन प्रवृत्तिका इस तरह पांच परमेष्ठी न कह जाकर तीन ही नहीं कहता। महापुरुषांका लक्षण ही यह है कि वे परमेष्ठो कह जाना उपयुक्त था, लेकिन ऐसा नहीं है। प्रायः भूल नहीं करते और यदि कदाचित् होजाये तो वास्तवमें बात यह है कि ये तीन परमेष्ठा अपनी मालूम पड़ने पर उसे तुरन्त स्वीकार करके प्रायश्चित्त अपनी मुख्य विशेषताओंसे प्रतिपादिन हैं। प्राचार्यले लेते हैं। हम भी अपने अग्रज रनवृत्ति महापुरुषांस का काम अपने सङ्घको उचित मार्गपर चलाना, यही आशा करते हैं और उन्हें अपना आदर्श नवाका दीक्षा देना आदि है । उपाध्यायका कार्य मानते हैं।
स्वयं पढ़ना और सङ्घके साधुओंको पढ़ाना है और कारिकाके वीतराग ओर विद्वान पद
माधुका काय आचाय द्वारा विहिन मागपर चलना हमने यह कहा था कि 'कारिकामें जो वीतरागी- और उपाध्याय द्वारा दी गई शिक्षाको प्राप्त करना मनिविद्वान' शब्द का प्रयोग है वह एक पद नहीं है है। अर्थात 'साधा: कार्य तप:श्रत:'.-साधका कार्य
और न एक व्यक्ति उसका वाच्य है किन्तु ५२वीं तप और श्रुत है और इन्ही विशेषतास ये तीन कारिकामें आये हुए 'अचंतनाकषायों की तरह इसका परमेष्ठियोंक पद रक्खे गये है। इसी तरह प्रकृतम प्रयोग है और उसके द्वारा 'वीतरागमुनि' तथा विद्वान- प्राप्तमीमांसाकारको उन दो मुनियोंका ग्रहण बतलाना मुनि' इन दोका बोध कराया गया है। प्राचार्य हे जिनमें एक नो तपकी मुख्यतासे तपस्वी एवं विद्यानन्दने तो वीतरागी विद्वांश्च मुनिः' कहकर वीतरागी है--अनशनादि और कायक्लंशादि तपोंको
और 'च' शब्दका साथमें प्रयोग करके इस बातको करते हुए भी उस राग-द्वेप या महंश नहीं होता बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है।' इसपर प्रो. सा. का और दूसग तत्त्वज्ञानकी मुख्यतासे विद्वान है--