Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 476
________________ ३३० अनेकान्त [ वर्ष ८ (घ) चौथे, यद्यपि छठे पद्यके अन्तमें 'यस्याप्तः उसके लिये प्रसिद्ध उक्त न्यायको प्रमाणरूपमें प्रस्तुत स प्रकीयते' पुनः कहा गया है और वहाँ प्राप्त किया है। इसी तरह अपसहर शब्दकी स्थिति सामान्य है तथापि वहाँ वह 'उत्सन्न- आचार्य विद्यानन्दने भी इस न्यायका उल्लेख किया दोष'के अर्थमें प्रयुक्त किया गया है, जिसका अर्थ यह है । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ. ४६३) में तो बिना है कि 'जिसके क्षुधा आदि अठारह दोष नहीं हैं वह विकल्प किये 'मूर्छा' शब्द बाह्य और आभ्यन्तर प्राप्त अर्थात् उत्सन्नदोष (वीतराग) कहा जाता है।' परिग्रहके अर्थमें स्पष्टतः प्रयुक्त किया गया है। इससे यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि सामान्यतः यह प्रकट है कि सामान्य शब्दका प्रयोग ग्रन्थकार प्रयक्त 'श्राप्त' शब्दसे 'उत्मन्नदोष रूप विशेष अर्थका विशेष अर्थमें भी प्रयक्त करते हुए पाये जाते हैं और बोध कैसे हो सकता है ? सामान्य शब्दसे तो इमलिये रत्नकरण्डके छठे पद्यमें जो सामान्यत: सामान्य अर्थका ही बोध होता है—विशेषका नहीं ? 'प्राप्त' शब्दका प्रयोग है वह 'उत्मन्नदोष' (वीतराग) विशेषका बोध तो विशेप ही शब्दसे होता है और के अर्थ में आया है । ईमाकी पाँचवी शतीमें पूर्वके इसलिये यदि वहाँ 'प्राप्त' शब्दसे उत्सन्नदोष विवक्षित रचित 'अामस्वरूप' ग्रन्थमें 'आप्तं दोषक्षयं विदुः' कह हो तो उसी शब्दका प्रयोग होना चाहिए-आप्त कर उसके रचयिताने दोषक्षय (वीतराग) के लिये शब्दका नहीं ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि आप्त शब्दका प्रयोग किया है और जिसमें भी हमारे सामान्य शब्दका प्रयोग भी विशेष अर्थके बोध उक्त कथनकी पुष्टि होजाती है। करनेमें प्रयुक्त होता है। यह न्याय सर्व प्रसिद्ध है कि अतः इस मब विवेचनसे स्पष्ट होजाता है कि "सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते” अर्थात रनकरण्डमें आप्पलक्षणविषयमें दो विचारधाराथोंसामान्यतः पद प्रयोग विशेषोंमें अवस्थित होते हैं। का समावेश नहीं है और इसलिये उसकी कल्पना अतः इम न्यायसे छठे पद्यमें प्रयुक्त 'श्राप्त' सामान्य मर्वथा भ्रमपूर्ण है। किन्तु यह संगत प्रतीत होता है शब्द 'उत्मन्नदोप'के अर्थमें ग्रहण करना चाहिए। कि श्राप्नमें जिन अठारह दोषोंका अभाव होना इसके लिये मैं निम्न दो नमूने उपस्थित करता हूँ, आवश्यक है उनमें क्षुधादि कुछ दोषांका अभाव तो जहाँ सामान्य शब्दको विशेपार्थका बाधक माना उपलक्षणात्मक है और राग, द्वेष, मोह आदि कुछ गया है दोपोंका अभाव लक्षणात्मक है । लक्षण तथा ___ "मूर्च्छतिरियं मोहसामान्ये वर्त्तते । 'सामान्य- उपलक्षण का अन्तर में पहले बतला आया हूँ कि चोदनाश्च विशेषेप्ववतिष्ठन्त' इत्युक्तविशेषे व्यवस्थितः लक्षण ता तन्मात्रवृत्ति ही होता है और उपलक्षण परिगृह्यत । परिग्रहप्रकरणात् ।'- सर्वार्थ. पृ. २३३ तत्मदृशमें भी रहता है । स्मरण रहे कि यदि क्षुधादि दोपांका अभाव घातिकर्मक्षयजन्यरूपसे ही कथित "मूर्छि रियं माहसामान्ये वर्तमानः बाह्याभ्यन्तरोपधि हो तो वह भी लक्षण ही है-उस हालतमें वह संरक्षणादिविषयः परिगृहीत इति विशेपितत्वात् उपलक्षण नहीं है। जैसाकि प्रा० विद्यानन्दने इष्टार्थसम्प्रत्ययो भवति । सामान्यचोदनाश्च विषेप्व- 'घातिकर्मक्षयजः' पदद्वारा स्पष्ट संकेत किया है। वनिष्टन्ते इति ।-तत्त्वार्थराजवा. पृ. २७६, ७-१७ केवल में जन्मादि ६ दोपोंके अभावका निर्णय यहां आचार्य पृज्यपाद और भट्टाकलङ्कदेव दोनों- कंवलीमें १८ दोपोंमेंसे १२ दोषोंके अभावका ने 'मृच्छा परिग्रह:' इस तत्त्वार्थसूत्रीय सूत्र में आचार्य निर्णय होचुका है और जिसे प्रो० सा ने भी स्वीकार उमाम्वामिद्वारा मामान्यतः प्रयुक्त 'भूमी' शब्दको कर लिया ह । अब संक्षेपमें शेष ६ दोषांके अभावका 'परिग्रह' म.प विशेष अर्थका बोधक बतलाया है और निणय और किया जाता है।

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