Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 475
________________ किरण ८-९] रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमामाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है ३२९ युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' इस प्राप्तमीमांसाकी छठी और सविवाद है । अतः ग्रन्थकारको उसका स्वरूप कारिकामें स्वीकार किया है। उन्होंने यहाँ सर्वज्ञता उद्घाटन अथवा स्पष्टीकरण करना आवश्यक था और युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्व (हितोपदेशकता) को और इसलिये उसका खुलासा उन्होंने एक स्वतन्त्र 'निर्दोषत्व' प्रयुक्त ही बतलाया है । सर्वज्ञताका (छठे) पद्य द्वारा यहाँ उसके उपयुक्त स्थानपर किया 'निर्दोषत्व' साधन (कारण हेतु) है और युक्तिशास्त्रा- है। यह नहीं कि वहाँ दूसरा आप्तलक्षण उपस्थित विरोधिवाक्त्वका साध्य (कारणात्मक) है, पर कारण किया गया है। हमारे इस कथनकी पुष्टि इसी ग्रन्थ दोनोंके लिये ही है । तात्पर्य यह कि जहाँ प्राप्तके (रत्नकरण्ड)पर लिखी गई प्रभाचन्द्राचार्य कृत लक्षणमें तीनों विशेषण दिये गये हैं वहाँ फलितको टीकाके विचारस्थ पद्योंके उत्थानिका वाक्योंसे भी भी ग्रहण कर लिया गया है और जहाँ केवल आप्तके होजाती है और जो इस प्रकार हैं:लक्षणमें एक 'उत्सन्नदोष' ही विशेषण कहा गया है "तत्र सद्दर्शनविषयतयोक्तस्याप्तस्य स्वरूपं वहाँ फलितको छोड़ दिया गया है और यह केवल व्याचिख्यासुराहप्रन्थकारोंका विवक्षा-भेद है-मान्यता-भेद नहीं' । प्राप्तेनोत्सन्नदाषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । जैसे प्रतिज्ञा और हेतु इन दोको अथवा धर्म, धर्मी __ भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥५॥ और हेतु इन तीनको अनुमानाङ्ग प्रतिपादन करना मात्र विवक्षा-भेद है--मान्यता-भेद नहीं। श्रथ के पुनस्ते दाषा ये तत्रोत्सन्ना इत्याशंक्याह___ (ग) तीसरे, पाँचवें पद्यमें कहे गये प्राप्तलक्षणमें क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः । कुत्पिपा जो उत्सन्नदोष, सर्वज्ञ और आगमेशी तीन न रागद्वेषमाहाश्च यस्याप्तः स प्रकीयते ॥६॥" विशेषण दिये गये हैं उनमें अन्तिम दो विशेषण यहाँ टीकाकारके 'के पुनस्ते दोषा ये तत्रोत्सनाः' अपेक्षाकृत सरल और स्पष्ट हैं-सर्वज्ञ विशेषणपर इस छठ पद्यक उत्थानकावाक्यस स्पष्टतया प्रकट ह तो ग्रन्थकार प्राप्तमीमांसा लिख चुके थे और वहाँ कि पाँचवें पद्यगत 'उत्मन्नदोष' का स्वरूप बतलाने उसपर तथा आगमेशीपर पर्याप्त प्रकाश डाल चके थे अथवा उसका स्पष्टीकरण करनेके लिये ही छठा पद्य उत्मन्नदोषपर प्रकाश डालना शेष था और उसपर रचा गया है और इसलिये वह स्वतन्त्र पामलक्षणका यहाँ संक्षेपम प्रकाश डाला गया है । वस्तुतः 'उत्सन्न प्रतिपादक नहीं है, किन्तु पाँचवें पद्यके एक विशेषणदोष' अन्य शेष दो विशेषणोंकी अपेक्षा कुछ अस्पष्ट का उद्घाटक होनेसे उसीका पूरक अथवा अङ्ग है। यदि ऐसा न होता-स्वतन्त्र ही अन्य प्राप्तलक्षण वहाँ १ जान पड़ता है कि जैमिनि आदि पूर्वमीमांसकोंने जब प्रतिपादित होता तो टीकाकार निश्चय ही उक्त प्रकारसे पुरुषमें दोषाभावकी असम्भवता बतलाकर सर्वज्ञता टीकामें उत्थानिकावाक्य न बनाकर 'आप्तस्यै उपदेशकताका अभाव प्रतिपादन किया तथा न्तरमाह-आप्नका ही दसरा लक्षण कहते हैं जैसे वेदोंको ही सर्वज्ञ एवं धर्मज्ञ और धर्माद्यपदेशक 'धर्मे उत्थानिकावाक्य बनाते। पर उन्होंने वैसा उत्थानिकाचोदनैव प्रमाणं (प्राप्त)' बतलाना घोषित किया तब वाक्य न बनाकर और 'के पुनस्ते दोषा ये तत्रोत्सना' विशिष्ट पुरुपकी मुक्ति सम्भव प्रतिपादन करने वाले इत्यादि पसे ही उसे बनाकर पूर्व (पाँचवें) पद्यके स्याहादियों-जैनोंके लिये 'पुरुषविशेष'को उत्सन्नदोष, साथ ही इस छठे पद्यका सम्बन्ध जोड़ा है । ऐसी सर्वज्ञ और धर्माद्य पदेशक सिद्ध करना आवश्यक हालतमें रत्नकरण्ड में दो विचारधाराओंकी कल्पनाके होगया। उसीका यह अनिवार्य परिणाम हा कि उक्त लिये कोई स्थान नहीं रहता। अतः इससे निर्विवाद तीनों विशेषण-विशिष्ट प्राप्तका स्वरूप बतलानेके लिये है कि रत्नकरण्डमें प्राप्तलक्षण सम्बन्धी दो परिभाषाएँ श्राप्तमीमांसा जैसे ग्रन्थोंका निर्माण हश्रा । या मान्यताएँ नहीं हैं। -

Loading...

Page Navigation
1 ... 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513