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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
(लेग्यक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया)
[गन किरणसे आगे] क्या रत्नकरण्डमें दो विचारधाराओंका आप्तमीमांसाका विभिन्न कर्तृत्व, ओ प्रो. सा. को
अभीष्ट है, सिद्ध नहीं होता। एक ग्रन्थकार अपने समावेश है ?
एक ग्रन्थकी मान्यताको अपने दूसरे ग्रन्थमें भी रख मैंने आगे चलकर यह कहा था कि रत्नकरण्डके सकता है कोई बाधा नहीं है । अतएव आप्तपाँचवें पद्यमें कथित आप्त-लक्षणमें दिये गये मीमांसाकार अपनी प्राप्तमीमांसोक्त प्राप्तलक्षण 'उत्सन्नदोष' या 'उच्छिन्नदोष' विशेषणका स्पष्टीकरण सम्बन्धी मान्यताको रत्नकरण्डमें दे सकते हैं। और अथवा स्वरूप प्रतिपादन करनेके लिये ग्रन्थकारने कुन्दकुन्दाचार्य तो आप्तमीमांसाकारके पूर्ववर्ती हैं ही अगला 'क्षुत्पिपासा' आदि छठा पद्य रचा है और जो अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध हैं। और इसलिये श्राप्तउसमें उन्होंने लक्षण तथा उपलक्षण रूपसे 'उत्सन्न- मीमांसाकार उनके द्वारा प्रतिपादित प्राप्तलक्षणको दोष का स्वरूप प्रदर्शन किया है।
भी इसमें उपस्थित कर सकते हैं क्योंकि रत्नकरण्ड __इसपर प्रो. सा. ने अब यह कल्पना की है कि आज्ञाप्रधान आगमिक रचना है और कुन्दकुन्दाचार्यवहाँ दो विचारधाराओंका समावेश है-पाँचवें का श्राप्तलक्षण आगमिक स्वयं सर्व प्रसिद्ध है। पद्यमें तो समन्तभद्रस्वामीका आप्तमीमांसा सम्मत अतः रत्नकरण्डमें दो विचारधाराओंका समावेश लक्षण है और छठे पद्यम कुन्दकुन्दाचाये प्रतिपादित मान लेनपर भी उससे रत्नकरण्ड और आप्तलक्षण । अपनी दम कल्पनाका आधार आप यह मीमांसाके एक कतृ त्वमें कोई बाधा नहीं पड़ती है। बतलाते हैं कि एक पद्यके अन्त में 'नान्यथा ह्याप्तता (ग्व) दमर, जिन दो विचारधाराओंकी कल्पना भवेत्' और दूसरे के अन्त में 'यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते' की जारही है वे दो हैं ही नहीं, क्योंकि समग्र जैनवाक्य दिये गये है। अतएव वहाँ किमी मेल-जोल साहित्यम एक ही आपलक्षण किया गया है और वह या लक्षण-उपलक्षणकी बात नहीं है।
अठारह दोषोंका अभावरूप है। इमीको किमीने पूरे नि:मन्देह उल्लिखित पद्यांक अन्तिम वाक्योंके रूपसे, किसीने शिकरूपसे. या किसीने परिवर्तितयथास्थित प्रयोगसे वैमी कल्पनाका उद्भव होना रूपसे अपनाया है । वास्तवमें प्राप्त विश्वसनीयम्वाभाविक है, क्योंकि जब हम यह समझते हों कि प्रामाणिक-व्यक्तिको कहा जाता है और उसके दोनों पद्य अपने आपमें परिपूर्ण हैं और वे किसी प्रामाण्यका कारण दोषाभाव माना जाता है। जहाँ एक दूसरेकी श्राकाँक्षा नहीं रखते । पर ऐसा समझना यह दोषाभाव पूर्णतः अन्तिमरूपमें है वहीं पूर्णत: बड़ा भ्रम है। इम सम्बन्धमें मैं यहाँ कुछ विस्तारसे प्रामाणिकता-आमता है । सर्वज्ञता और हितोपविचार प्रस्तुत करता हूं।
देशकता तो दोषाभावके ही फलित हैं। इस बातको (क) यदि हम यह मान भी लें कि रत्नकरण्डमें स्वयं स्वामी समन्तभद्रने 'सत्यमेवास्ति निर्दोषो प्राप्त-लक्षण सम्बन्धी दो विचारधाराओं अथवा १ देखिये, डा. ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित 'प्रवचनमान्यताओंका समावेश है तो उससे रत्नकरण्ड और सार'की प्रस्तावना ।